April 28, 2024

किताबों के बोझ तले दब रहा बचपन, निजी स्कूलों में कमीशन खोरी का खेल जारी

Poonam Chauhan/Alive News
Faridabad:
छोटे-छोटे बच्चे और उनके बड़े-बड़े भारी बस्ते। आजकल यह दृश्य आम हो गया है। गर्मी के साथ-साथ भारी बैग बच्चों के पसीने निकाल रहा है। यह दृश्य आज की शिक्षा-व्यवस्था की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिह्न लग रहा है। क्या शिक्षा नीति के सूत्रधार बच्चों को किताबों के बोझ से लाद देना चाहते हैं। वस्तुत: इस मामले पर खोजबीन की जाए तो इसके लिए समाज अधिक जिम्मेदार है। निजी स्तर के स्कूलों में बच्चों के सर्वागीण विकास के नाम पर बच्चों व उनके अभिभावकों का शोषण किया जा रहा है।

हर स्कूल विभिन्न विषयों की पुस्तकें लगा देते हैं। ताकि वे अभिभावकों को यह बता सकें कि वे बच्चे को हर विषय में पारंगत कर रहे हैं और भविष्य में उनका बच्चा हर क्षेत्र में कमाल दिखा सकेगा। छोटे-छोटे बच्चों के नाजुक कंधों पर लदे भारी-भारी बस्ते उनकी बेबसी को ही प्रकट कर रहे हैं। इस अनचाहे बोझ का वजन विद्यार्थियों पर दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। बच्चों की इस तकलीफ को अभिभावक भी महसूस करते हैं। नए सत्र के शुरू होने के साथ ही अभिभावक इस तरह की शिकायतें लेकर स्कूल पहुंचने लगे हैं। अभिभावकों के अनुसार पिछले सत्र की अपेक्षा बच्चों के बैग का वजन एक से दो किलो तक बढ़ गया है।

बढ़ते बस्ते के बोझ का सबसे बड़ा कारण निजी स्कूल संचालकों का निजी प्रकाशकों से मोटी व महंगी किताबों से मोटा कमीशन का होना है। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि बोर्ड के जो पेपर बनाए जाते हैं उसके जो प्रश्न होते हैं वह एनसीईआरटी की किताबों में से ही बनाए जाते हैं। सीबीएसई व राज्य के सभी बोर्डों ने कई बार दिशानिर्देश निकालकर स्कूल संचालकों को आदेश दिया है कि वे अपने स्कूलों में एनसीईआरटी की किताबें ही लगाएं। लेकिन स्कूल प्रबंधक इन आदेशों को ना मानकर क्लास वन से लेकर आठवीं और बारहवीं तक एनसीईआरटी की किताब की जगह निजी प्रकाशकों की मोटी व महंगी किताबें लगाते हैं। इतना ही नहीं कमीशन खोरी के चक्कर में ऐसी किताबें भी लगा दी जाती हैं जिनकी कोई जरूरत नहीं होती है।

अब सोचने का समय आ गया है कि बस्ते का बोझ किस तरह कम किया जाए। बस्ते का बढ़ता बोझ बच्चों का बचपन ही नहीं निगल रहा है, बल्कि उन्हें शारीरिक रूप से विकृत भी बना रहा है। केंद्र व राज्य सरकारों को भी इस महत्वपूर्ण विषय पर गंभीरता से विचार करके बढ़ते बस्ते का बोझ कम कराने के लिए कोई ठोस योजना बनानी होगी और उसका पालन भी कराना होगा। जिससे देश का भविष्य कहे जाने वाले बच्चे शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ रह सकें।

नाजुक कंधों पर पड़ता है दबाव
स्कूल बैग का बढ़ता बोझ निरंतर चिंता का विषय बना हुआ है। भारी बैग की वजह से बच्चों के कंधों पर जरूरत से अधिक दबाव पड़ता है जिससे उनकी रीढ़ की हड्डी पर भी दबाव बढ़ने लगा है। अभिभावकों के अनुसार यूकेजी के बच्चे के बैग का वजन साढे़ तीन किलो तक होता है जबकि दूसरी क्लास तक पहुंचते-पहुंचते यह बढ़कर 5 किलो हो जाता है। पांचवीं में स्कूल बैग का वजन 7 से 8 किलो तक हो जाता है।

नई स्कूल बैग पॉलिसी 2020
इस पॉलिसी के तहत स्कूलों को ये ध्यान रखना होगा कि बच्चों के बैग का वजन उनके वजन के 10 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना चाहिए। साथ ही स्कूलों को समय-समय पर बच्चों के बैग का वजन चेक भी करना होगा। पॉलिसी के मुताबिक कक्षा 2 तक के छात्रों को कोई होमवर्क नहीं दिया जाना चाहिए। क्लास 3 से 5 तक हफ्ते में सिर्फ 2 घंटे का ही होमवर्क दिया जाए। इसके बाद क्लास 6 से 8 तक के बच्चों को हर दिन 1 घंटे यानी हफ्ते में 5 से 6 घंटों से ज्यादा होमवर्क नहीं दिया जाना चाहिए। 10वीं से 12वीं क्लास के छात्रों को हर दिन 2 घंटे का होमवर्क दिया जा सकता है।

भारी बस्ते के क्या है दुष्परिणाम पढ़िए डॉक्टर की राय
अगर बच्चे के स्कूल बैग का वजन बच्चे के वजन से 10 प्रतिशत अधिक होता है तो काइफोसिस होने की आशंका बढ़ जाती है। इससे सांस लेने की क्षमता प्रभावित होती है। भारी बैग के कंधे पर टांगने वाली पट्टी अगर पतली है तो कंधे की नसों पर असर पड़ता है। कंधे धीरे-धीरे क्षतिग्रस्त होते हैं और उनमें हर समय दर्द बना रहता है।
-डाक्टर सुरेश अरोड़ा, आर्थों एंड सर्जन

क्या कहना हैं अभिभावकों का
बच्चों के बैग जरूरत से अधिक भारी हैं। ऐसे में स्कूल बस तक बच्चे का बैग पहुंचाने के लिए पैरंट्स को जाना पड़ता है। बैग उठाकर वाकई लगता है कि बच्चे पर काफी भार पड़ रहा है।

-अनीता चौहान, अभिभावक।

प्राइवेट स्कूल इस मामले में बच्चों का शोषण कर रहे हैं। कमाई के चक्कर में बैग लगातार भारी किए जा रहे हैं। हर साल कॉपी, किताबों की संख्या बढ़ जाती है। पानी की बोतल ले जानी पड़ती है क्योंकि पीरियड के दौरान बच्चे पानी पीने क्लास से बाहर नहीं जा सकते

-प्रिया, अभिभावक।

क्या कहना है अभिभावक एकता मंच का
वर्तमान समय में बच्चों के मासूम कंधों पर बस्ते का बोझ इतना बढ़ गया है कि उसे मिलने वाली विद्या का साधन ही उसे दबाए जा रहा है। आज का छात्र, छात्र कम कुली ज़्यादा दिखने लगा है। अब तो प्ले स्कूल के पाठ्यक्रम को छोड़ दें तो नर्सरी कक्षा से ही पुस्तकों की संख्या विषयानुसार बढ़ने लगती हैं। एक-एक विषय की कई पुस्तकें विद्यार्थियों के थैले में देखी जा सकती हैं। कुछ व्याकरण के नाम पर तो कुछ अभ्यास-पुस्तिका के नाम पर। हद तो तब हो जाती है जब शब्दकोश की किताब भी बच्चों के बस्ते में दिखाई देती है। बच्चों के मासूम कंधे से बस्ते का बोझ कम करने का एक तो उपाय यह है कि सरकार इन दोषी स्कूल संचालकों के खिलाफ उचित कार्रवाई करे जो संभव नहीं दिख रहा। दूसरा उपाय यह है कि अभिभावकों को इसके लिए खुद आगे आकर जागरूक होना होगा।
-कैलाश शर्मा, महासचिव, अभिभावक एकता मंच।