April 25, 2024

भाग- 3 : गोलवालकर का हिन्दू राष्ट्र व राष्ट्रीयता

लेखक- जे. बी. शर्मा

GOLWALKAR’S, WE OR OUR NATIONHOO DEFINED ( 3rd Revised Edition). A Critique by SHAMSUL ISLAM.
उपरोक्त पुस्तक व अन्य पुस्तकों व ग्रंथों के अध्ययन की सहायता से हम ‘गोलवाकर का हिन्दू राष्ट्र व राष्ट्रीयता शीर्षक को लेकर श्रृखंला बद्ध आलेखों की कड़ी में हम तीसरे प्रकरण की शुरुआत करने जा रहे हैं। जहां तक एम.एस.गोलवालकर [GOLWALKAR’S, WE OR OUR NATIONHOO DEFINED ( 3rd Revised Edition). A Critique by SHAMSUL ISLAM. ] की बात है तो वे प्राध्यापक, लेखक के अलावा दृढ़ हिन्दुत्वादी विचारक व ज्ञापक के रूप में भी जाने गए हैं। वहीं जिनका गोलवालकर ने, हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा व दर्शन को लेकर अनुसरण किया उनका नाम है, विनायक दामोदर सावरकर [Born 28 May 1883, died on 26 Feb. 1966] जिन्हें वीर सावरकर के नाम से भी लोग जानते हैं। उपरोक्त पुस्तक में सावरकर ने फासीवाद और जर्मन के नाज़ीवाद की भारत में किसी के भी द्वारा की गई आलोचना को नहीं सराहा। जबकि पंडित जवाहर लाल नेहरू ने तो उक्त दोनो निरंकुशवादी विचारधारओं की खुले रूप से कठोर आलोचना की।

GOLWALKAR’S, WE OR OUR NATIONHOO DEFINED ( 3rd Revised Edition). A Critique by SHAMSUL ISLAM.
[sic] In Chapter – Defence Of Racism – page 26

Savarkar did not appreciate criticism of Fascism and Nazism from any quarter in India. When Jawarharlal Nehru came out with stringent criticism of these two totalitarian ideologies, Savarkar retorted:
Who are we to dictate to Germany, Japan or Russia or Italy to choose a particular form of policy of Government simply because we woo it out of academical attraction? Surely Hitler knows better than Pandit Nehru does what suits Germany best. The very fact that Germany or Italy has so wonderfully recovered and grown so powerful as never before at the touch of Nazi or Facist magical wand is enough to prove that those political ‘isms’ were the most congenial tonics their health demanded.

सावरकर साहब द्वारा अंग्रेज़ी में कहे गए उपरोक्त कथन का हम हिन्दी में अनुवाद कर रहे हैं। हमारा पाठकों से अनुरोध है कि वे शब्द व शब्द अनुवाद को न देखें बल्कि उक्त कथन के सार को समझने का प्रयास करें।
सावरकर ने फासीवाद और नाज़ीवाद की भारत में किसी भी स्त्रोत द्वारा की गई आलोचना को नही सराहा। जब पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उक्त दोनो निरंकुशवादी विचारधारओं की खुले रूप से सख़्त आलोचना की, तो सावरकर ने कठोरता से प्रत्युत्तर देते हुए कहा:
हम कौन होते हैं जर्मनी, जापान, इटली या रशिया को आदेश देने वाले कि वे हुकूमत के लिए एक विशेष प्रकार की नीति निर्धारित करें और वह भी केवल इसलिए कि हम शैक्षणिक दृष्टि से समर्थन हासिल कर सकेें। निश्चित तौर पर हिटलर इस बात को पंडित नेहरू से अधिक समझते थे कि जर्मनी के लिए क्या उपयुक्त है। सच तो यह है कि इटली और जर्मनी ने नाज़ी और फासीवाद के राज-दंड को जिस मज़बूती और अद्भुत ढंग से सत्ता संभाली और जो प्राप्त किया और आगे बढ़े इससे पूर्व वे पहले कभी नहीं कर सके। यह टॉनिक उन राजनीतिक वादो [Isms] की सेहत के लिए कितना अनुकूल है यह साबित करने के लिए पर्याप्त उदाहरण है।

यह सच है कि गोलवालकर द्वारा लिखित पुस्तक, जिसका जि़क्र हम लगातार करते आ रहे हैं, में, भारत में व्याप्त मैजोयरटी और माइनियोरटी के कारण पैदा हुई समास्या के समाधान के लिए बहुत सी कड़वी-कठोर बाते कही गई हैं। जिनकी चर्चा हम यहां नहीं करना चाहते। क्योंकि हमारा मकसद दो विभिन्न विचार धाराओं को समझना और समझना है। साथ हम स्पष्ट कर दें कि हमारा मकसद समाज में किसी प्रकार से वैमनस्य, घृणा या अलगाव पैदा करना नहीं है। अपितु हम प्रयासरत रहेंगे कि धैर्य व शांति से वैचारिक मतभदों को लेकर किसी प्रकार की तीखे शब्दों का प्रयोग न किया जाये। इसके अलावा कटु आलोचना से परेहज़ से भी परहेज़ करते हुए बिना भेद-भाव पूर्ण उपरोक्त पुस्तक में हिन्दू अवबोधकों, ज्ञापकों और हिन्दू चेतना – प्रचार -प्रसार के घोर पक्षधरों द्वारा उल्लेखित सच्चाई को समझा जाए। उनकी हार्दिक अभिलाषा को तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से ठीक-ठीक समझने के प्रयास के साथ हिन्दू -ज्ञापकों, विचारकों और लेखकों की कलम के पैनेपन से जन-साधरण के दिलों में उठने वाले दर्द के अहसास को समझा जाए।
साथ ही हिन्दू-अवबोधकों व विद्वान विचारकों के दृष्टि-कोण व दर्शन से उत्पन्न होने वाली शंकाओं का क्या कहीं कोई उनकी विचारधारा से इतर कोई समाधान या प्रत्युतर है या होगा? क्योंकि उनकी अभिव्यक्ति जहां एक ओर बहुत ही सुस्पष्ट कही जा सकती है वहीं संबंधित विषय पर अत्यंत तीखी प्रतिक्रिया कहें तो भी गलत नहीं होगा। उदारणत: उक्त पुस्तक के अध्याय, डिफेंस ऑफ रेसजि़म, में गोलवालकर साहेब ने भी सावरकर साहब का अनुसरण करते हुए जो लिखा है वह कुछ इस प्रकार है:

Savarkar, like Golwalkar, went all out to support Hitler’s anti-Jewish progroms. On October 14, 1938 he hinted towards adopting the same solution to the problem of minorities like Muslims in India:

ऐसे में अगर हम गोलवालकर के उपरोक्त कथन का हिन्दी में अनुवाद करते हैं तो कुछ इस प्रकार है:
सावरकर के मानिंद गोलवालकर ने भी पूरी दृढ़ता व विश्वास के साथ, हिटलर द्वारा यहूदियों की तबाही का खुला समर्थन किया। यहां तक कि उन्होंने 14 अक्टूबर 1938 को यह संकेत दिया कि भारत में भी मुस्लमानो की तरह अल्पसंख्यकों की समस्या से निपटने के लिए समाधान का वैसे ही रास्ता अंगीकार हो।
यहां हमारा सवाल है कि हिटलर ने जो रास्ता इख्तियार किया क्या वह सच में ही जर्मन के हित में था? आईए देखें कि रामधारी सिंह दिनकर इस बारे में अपनी पुस्तक, संस्कृति के चार अध्याय, में क्या लिखा है।

दिनकर – अपनी पुस्तक के प्रकरण-2 , ‘आर्य-द्रविड़ समस्याएं में एक जगह लिखते हैं कि , ‘ जब यूरोप को प्रजातिवाद से उत्पन्न कालकूट से पाला पड़ा, तब सन् 1939 ई0 में जूलियन हक्सले द्वितीय ने कहा था कि ” प्रजातिवाद का सिद्धांत झूठा भी है और खतरनाक भी। आर्य शब्द का प्रयोग अंग्रेज़ी में पहले-पहले सन् 1853 ई0 में मैक्समूलर ने किया था और 1939 में आकर हिटलर ने प्रमाणित कर दिया कि आर्यों को प्रजाति मानने का सिद्धांत सचमुच खतरनाक है। भारत को भी यह नहीं मानना चाहिए कि आर्य और द्रविड नाम दो प्रजातियों के नाम हैं। मैक्समूलर को जब अपनी गलती मालूम हुई, उन्होंने स्वयं घोषणा करके कहा था, ” जब मैं एरियन शब्द कहता हूं, तब मेरा अभिप्राय न रक्त से होता है, न अस्थि, बाल और खप्पर से। मेरा तात्पर्य केवल उन लोगों से है जो, आर्य भाषा बोलते है। बस, आर्य शब्द का इतना ही अर्थ है भारत के लिए भी ठीक है।

हमारे पाठकों को केवल यह समझना है कि गोलवालकर ने 1938 में हिटलर द्वारा जिस युक्ति या सिंद्धांत पर यहूदियों को तबाह किया गया। उसकी प्रशंसा करते हुए यही सोचा था कि भारत में अल्पसंख्यकों की समस्या के समाधान के लिए हिटलर की युक्ति अंगीकार हो। लेकिन चाहे मैक्समूलर हों या हिटलर या फिर यूरोप के अन्य ज्ञापक और अवबोधक द्वारा प्रजातिवाद के सिद्धांत को मानकर जो भूल की थी उसके लिए उनको सन् 1939 में कैसे खुले दिल से प्रायश्चित करना पड़ा उसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है।

पाठको, हमें तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से ऐसी बातों को समझना है।

(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं)