December 24, 2024

औरतों का जिस्म काटकर निकालने के धंधे को डॉक्टर दे रहे अंजाम

लक्ष्मी को ‘साल भर से माहवारी के दौरान ख़ून का ज़्यादा रिसाव होता था’। इसके इलाज के लिए वो एक डॉक्टर के पास गई जिसने उससे कहा कि उसमें ‘कैंसर के लक्ष्ण मौजूद हैं’ और उसे ‘ऑपरेशन करवाना पड़ेगा वरना वो मर जाएगी।’ गद्दा अनुषा को भी कैंसर का भय दिखाया गया। आदिवासी पतलोम शांति से कहा गया कि उनके पेट में गढ्ढा बन रहा है। कुछ को तो सीधे ये कहा गया कि ऑपरेशन नहीं करवाओगी तो मर जाओगी।

तेलंगाना के कई इलाकों में तो अगर ये पूछें कि किसके-किसके बच्चेदानी का आपरेशन हुआ है तो ज्यादातर औरतें ये कहते हुए हाथ उठा देती हैं – मेरा, मेरा, मेरा। लक्ष्मी और उन सभी को बच्चेदानी के आपरेशन की सलाह प्राइवेट डॉक्टरों से मिली थी और उनका ऑपरेशन भी प्राइवेट अस्पतालों में ही हुआ। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बच्चेदानी के तकरीबन 67 फीसद आपरेशन प्राइवेट अस्पतालों में किये जा रहे हैं।

इन ऑपरेशनों का, जिन्हें सामाजिक कार्यकर्ता ‘गैर-जरूरी करार देते हैं। वो कहते हैं “इनका मकसद है मरीजों से मोटी फीस वसूल करना।” मरीज या उसके परिवार वाले इन ऑपरेशनों के लिए सीधे अपनी जेब से पैसा भर रहे हैं। काफी मामले वैसे होते हैं जिसमें गरीब जनता को सरकारी स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत मुफ़्त अस्पताल की सेवा मुहैया होती है। सामाजिक कार्यकर्ता भारत भूषण कहते हैं, ये एक ऐसा घोटाला है “जिसमें डॉक्टर, क्वैक्स, आरएमपीज, डायगनोस्टिक सेंटर्स सभी शामिल हैं।”

कौड़ीपल्ली में हम उस अस्पताल में गए जिसका नाम कुछ दूसरे नामों के साथ बच्चेदानी निकालने के ऑपरेशन के सिलसिले में बार-बार आ रहा था। इतने ज्यादा बच्चेदानी के ऑपरेशन और वो भी इतनी कम उम्र के औरतों के क्यों? ये सवाल पूछे जाने पर उस नर्सिंग अस्पताल के मालिक ‘डा.’ प्रभाकर हमारे सवाल का मुश्किल से ही जवाब दे पाये। हां उन्होंने ये जरूर कहा कि “इन ऑपरेशनों के लिए हैदराबाद से डॉक्टर आते हैं”।

प्रभाकर आयुर्वेद के चिकित्सक हैं लेकिन उनका पीरा नर्सिंग होम शहर में मौजूद है। रमम्मा को तो बच्चेदानी के ऑपरेशन के बाद तक़रीबन 45 दिनों तक अस्पताल में ही भर्ती रहना पड़ा। एक छोटे से टीले पर मौजूद कन्नारम गांव के अपने घर में बैठी वो हमें बताती हैं कि पहली बार के बाद “फिर से ऑपरेशन हुआ लेकिन फिर भी इंफेक्शन को जाने में 45 दिन लग गये।”

वो कहती हैं, “सर्जरी में बहुत सारे पैसे खर्च हुए, सब उनके पति ने दिए।” लेकिन रमम्मा के पति सत्या के पास न तो किसी भी टेस्ट की कॉपी है, न ही डॉक्टर को ऑपरेशन के लिए दिए गए फीस की रसीद। वो कहते हैं, “हमको डा. ….. पर यकीन है”, उन्हें वो सालों से जानते हैं।

कुछ यही हाल है ज्यादादर उन सभी लोगों को जिनका इतना बड़ा ऑपरेशन कर दिया गया लेकिन उनके पास तो न तो दी गई फीस की रसीद है, कुछ के पास तो डॉयगनोस्टिक सेंटर्स की रिपोर्ट्स तक नहीं हैं। निजामाबाद के सरायपल्ली सरकारी स्वास्थ्य केंद्र में काम कर रही जेएस राजेश्वरी कहती हैं, “इन अस्पतालों में प्रशिक्षित चिकत्सक मौजूद नहीं होते हैं, पहले तो वो पेशेंट को बताते हैं कि यहां से दूसरे डाक्टर आएंगे, वहां से आएंगे लेकिन ऐसा नहीं होता। एक प्रशिक्षित सर्जन आ भी गई तो क्या, न एनेस्थिसिया के लिए टेक्नीशियन न ऑपरेशन के बाद की देखभाल की साफ-सुथरी सेवा।”

राजेश्वरी इस अस्पताल में हेल्थ असिस्टेंट हैं और बताती हैं कि गांव की बहुत सारी ऐसी महिलाओं से उनका पाला पड़ता है जो बच्चेदानी के ऑपरेशन करवा चुकी हैं। तेलंगाना के सरकारी स्वास्थ्य बीमा योजना – आरोग्यश्री, के पूर्व कार्यकारी अधिकारी डा. गोपाल राव कहते हैं, “बच्चेदानी के इतने ऑपरेशनों का मामला सरकार की निगाह में है, और महिला रोग चिकत्सक भी सामने आ रही हैं, इसे लेकर जागरुकता अभियान शुरु किया गया है।”

हालांकि डा. राव सामाजिक कार्यकर्ताओं के उस आरोप से इंकार करते हैं कि सरकारी स्वास्थ्य बीमा योजना इन कथित ग़ैर-ज़रूरी ऑपरेशनों के पीछे है, क्योंकि उनके मुताबिक़ “आरोग्यश्री में जिन अस्पतालों को शामिल किया गया उसकी पूरी जांच-परख” की गई थी। लेकिन ये भी सच है कि बच्चेदानी के दो तिहाई ऑपरेशन, खुद भारत सरकार के आंकड़े के मुताबिक, प्राइवेट अस्पतालों में हो रहे हैं।

साथ ही, भारत सरकार के ताज़ा स्वास्थ सर्वे के मुताबिक आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में बच्चेदानी के ऑपरेशन का प्रतिशत 8.9 और 7.7 फीसद है। जबकि देश में इसका सामान्य प्रतिशत 3.2 है। औरतों का जिस्म काटकर पैसा कमाने का ये धंधा महज तेलंगाना और आंध प्रदेश तक ही सीमित नहीं बल्कि बिहार, गुजरात और दूसरे कई सूबे इसके जाल में आ चुके हैं। बिहार, गुजरात में भी ये आंकड़ा चिंताजनक स्थिति को पहुंच चुका है।

माहवारी खत्म होने के उम्र के पहले किए जा रहे इन आपरेशनों की इन गरीब महिलाओं को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। लक्ष्मी अगर 10 कदम भी चलती है तो दर्द होने लगता है, सांस उखड़ जाती है। वो कहती हैं, “पिछले माह भर से मुझे बहुत दर्द है। मैं न खड़ी हो सकती हूं, न ही बैठ सकती हूं।” कुछ सालों पहले ऐसे ही हुए ऑपरेशन के बाद से शबाना को “लगातार डाक्टरों के चक्कर लगाने पर रहे हैं, जिसपर लाखों शायद ख़र्च हो चुके हैं।” उदास होकर वो कहती है, “शौहर कहते हैं तुम पर ही पैसे फूंकता रहूं या कुछ और भी करूं जिंदगी में।”

स्त्री रोग विशेषज्ञ लक्ष्मी रत्ना मेनोपौजल सोसाईटी की हैदराबाद में सेक्रेटरी रह चुकी हैं। वो कहती हैं, “क्योंकि बेसिक हार्मोन ओवरीज में तैयार होता है तो माहवारी खत्म होने की उम्र के पहले बच्चेदानी निकालने से उस हार्मोन की कमी हो जाती है। जिससे मिहला की हड्डियां कमजोर हो जाती हैं और दूसरे तरह के असर भी होते हैं।” वो कहती हैं कि एक महिला में माहवारी खत्म होने के उम्र 51 से 52 साल होती है।

भारत भूषण कहते हैं, “इन गैर-जरूरी ऑपरेशनों का एक नुकसान इन गरीब महिलाओं के लिए उनके लिए भविष्य में किसी तरह के काम करने के लिए सक्षम न रह पाना भी है।” वो कहते हैं, “गरीब परिवारों में मर्द और औरत दोनों काम करते हैं फिर घर की गाड़ी किसी तरह खिंच पाती है लेकिन इन ऑपरेशन के बाद एक व्यक्ति की कमाई बंद हो जाती है तो परिवार की आर्थिक
रूप से कमर टूट जाती है।”

भूषण के मुताबिक ये तब होता है जब आर्थिक रूप से कमजोर ये गरीब लोग पहले ही पत्नी या बेटी – जिसका भी ऑपरेशन हो रहा है, उसे बचाने के लिए कर्ज लेकर, जमीन बेच या गिरवी रख पैसे उगाहने को मजबूर होते हैं। मगर आंकड़ों से परे कमाई के लालच में किए गए इन अंधाधूंध ऑपरेशनों का सबसे दुखद पहलू ये है कि इनमें से कई कम उम्र औरतें जीवन में कभी मां नहीं बन सकेंगी।