3 मई को विश्व भर में प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है। पत्रकारिता ने एक समय में गुलामी को झेला है। इण्डिया में प्रेस को लोकसभा का चौथा स्तभ भी मन जाता है। लेकिन आज के आधुनिक दौर में भी विश्व के कई देशों में पत्रकारिता आज भी शासकों या सरकारों के अधीन कार्य करती है। बहुत से देश ऐसे भी हैं जहां मीडिया संस्थानों पर सरकार का नियंत्रण खुले तौर पर नहीं बल्कि काफी हद तक है। और वहां की सरकार मीडिया पर समय-समय पर अपनी शक्ति का दुरुपयोग करती हैं। पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है।पत्रकारों का काम बहुत ही जोखिम भरा है। कभी संवेदनशील जगहों पर पत्रकारों पर हमले होते हैं, कभी किसी मुद्दे को उजागर करने पर पत्रकारों को जेल जाना पड़ता है। कई पत्रकारों की मौत भी हो चुकी है।
विश्व भर पत्रकारों और पत्रकारिता की आजादी बनी रहे और सरकार का यह भी दायित्व है कि सोशल मीडिया और गपशप पत्रकारिता के इस दौर में अपने मूल धर्म में जीवित और स्वतंत्र रहे। आखिर सरकारें हों या विपक्षी दल, राजनीतिक लड़ाई के लिए मुद्दों को सामने लाने वाले पत्रकार ही होते हैं।
इसी उद्देश्य से हर साल 3 मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है। पत्रकारिता से सच्चाई की उम्मीद करना आग को गर्म करने और बर्फ को ठंडा करने जैसा स्वाभाविक है। लेकिन पत्रकारों के लिए पत्रकारिता न तो स्वाभाविक है ।और न ही आसान है। पत्रकारों की गिरफ्तारी, हत्या और बदसलूकी भी होती रहती हैं। पत्रकारिता के लिए बड़े पैमाने पर लड़ने के लिए शायद ही कोई पत्रकार खड़ा होता है।
कभी कभी सरकारे ही असली मुद्दे को उजागर करना से पत्रकारो को रोकती हैं। कुछ आंतरिक, व्यावसायिक, सामाजिक या आपराधिक ताकतें भी ख़बर और सच्चाई को खत्म करने में शामिल होती हैं। सच की राह पर चलने वाले पत्रकारों की आंखें अंधी कर दी है। तो कभी पत्रकारो को काम पर ही नहीं रखा जाता है। तो कभी गिरफ्तारी और कभी-कभी हत्या तक का अंजाम भुगतना पड़ता है।
पत्रकारों और प्रेस की आजादी की बात तो सभी करते हैं। लेकिन आज समाज ऐसे दौर में है, जहां हर किसी को अपने-अपने तरीके से सच की तह तक जाना पड़ता है। समाज का एक हिस्सा अपने हिस्से को सच मानता है और दूसरे हिस्सा एजेंडे को सच मानता है। ऐसे में कैसे और कौन तय करेगा कि सच क्या है। जो समाज प्रेस को स्वतंत्र रखने की आशा करता है। उसमें सत्य को जानने से पहले उसे समझने और सहन करने का धैर्य होना चाहिए। सत्य की बात में न तो संतुलन होता है। और न ही शब्द की चमक, इसलिए हमें सत्य को सत्य के रूप में स्वीकार करना चाहिए। प्रेस या पत्रकारों से किसी वर्ग विशेष पर ध्यान देने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में सरकारों को याद दिलाने में यह दिन महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस दिन उन पत्रकारों को भी याद किया जाता है। जिन्होंने पत्रकारिता में अपना अहम योगदान दिया और इस क्षेत्र के लिए जान गंवाने वालों को भी याद किया जाता है।
इस दिन पत्रकारों पर हमले और उनकी आजादी को नुकसान पहुंचाने वाले पलों को याद किया जाता है। और उन पर चर्चा की जाती है। इस दिन सभी देशों की सरकारों को आगाह किया जाता है। कि पत्रकारों की सुरक्षा सरकारों की जिम्मेदारी है। पत्रकारों की स्वतंत्रता और सुरक्षा के लाभों के बारे में और देश की प्रगति में पत्रकारिता कैसे योगदान करती ह। इसके बारे में भी देश को आगाह किया जाता है।
प्रेस स्वतंत्रता दिवस की मांग सबसे पहले दक्षिण अफ्रीका के पत्रकारों ने 1991 में की थी। 3 मई को प्रेस की स्वतंत्रता के सिद्धांतों पर एक बयान जारी किया गया। जिसे विंडहोक की घोषणा के रूप में जाना जाता है। दो साल बाद, 1993 में, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने पहले विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस की घोषणा की। इस घोषणा के बाद 3 मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। इतना ही नहीं गुइलेर्मो कैनो वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम प्राइज हर साल 3 मई को यूनेस्को द्वारा दिया जाता है। यह पुरस्कार उस पत्रकार या संस्था को दिया जाता है जिसने प्रेस की स्वतंत्रता के लिए उल्लेखनीय कार्य किया हो।