देश में प्रिंट जर्नलिज्म इन दिनों तमाम तरह की चुनौतियों से जूझ रहा है। इनमें सबसे कड़ा मुकाबला तो इसे समय और नई टेक्नोलॉजी से मिल रहा है। आजकल स्मार्टफोन का जमाना है। कोई भी सूचना चंद सेकेंडों में स्मार्टफोन व सोशल मीडिया पर आसानी से मिल जाती है जबकि प्रिंट में वही सूचना हासिल करने के लिए पूरे एक दिन यानी 24 घंटे तक इंतजार करना पड़ता है। केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली का भी कहना है कि आज के समय में प्रिंट मीडिया के सामने अपनी नई पहचान को तलाशना ही सबसे बड़ी चुनौती है। यदि हम शहरी इलाकों की बात करें तो न्यूज हासिल करने के लिए सोशल मीडिया काफी प्रभावी माध्यम बन रही है। हालांकि देश में प्रिंट इंडस्ट्री भी लगातार आगे बढ़ रही है लेकिन इसकी रफ्तार काफी धीमी है।
वहीं इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि डिजिटल मीडिया ने टेलिविजन, रेडियो और प्रिंट की ग्रोथ पर ब्रेक लगा दिया है। खास बात यह है कि डिजिटल मीडिया के बढ़ते प्रभाव से क्षेत्रीय भाषाओं के अखबारों के मुकाबले अंग्रेजी प्रकाशन काफी प्रभावित हुए हैं।
यदि हम वर्ष 2017 की बात करें तो डिजिटल मीडिया की आंधी के अलावा प्रिंट इंडस्ट्री को और भी तमाम तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा। प्रिंट इंडस्ट्री इस साल नोटबंदी, जीएसटी और प्रेस की आजादी पर लगाम जैसी तमाम समस्याओं से जूझती रही।
प्रिंट मीडिया की बात करें तो यह एडवर्टाइजिंग और सर्कुलेशन रेवेन्यू पर बहुत ज्यादा निर्भर होती है। लेकिन इस दौरान इन दोनों में ही गिरावट देखी गई। आठ नवंबर 2016 को नोटबंदी की घोषणा के बाद से इस सेक्टर में काफी आर्थिक मंदी देखी गई।
इस बारे में ‘मिड-डे’ अखबार के सीईओ संदीप खोसला का कहना है, ‘नौ दिसंबर 2016 से फरवरी 2017 तक बिजनेस में पूरी तरह से ठहराव आ गया था। हमारा सबसे ज्यादा रेवेन्यू रिटेल और रियलिटी से आता है और नोटबंदी के बाद से दोनों बुरी तरह प्रभावित रहे।’
वहीं, ‘दिल्ली प्रेस’ के पब्लिशर परेश नाथ का कहना है, ‘नोटबंदी के दौरान लोग जरूरत की चीजें खरीदने के लिए कैश बचाना चाहते थे। उस दौरान किसी के लिए भी अखबार अथवा पत्रिकाओं पर पैसे खर्च करना प्राथमिकता में शामिल नहीं था। पहले वे अपने पास जमा नकदी को जरूरत की चीजों पर खर्च करना चाहते थे।’
नोटबंदी के बाद पत्र-पत्रिकाओं का सर्कुलेशन रेवेन्यू भी कुछ समय के लिए काफी प्रभावित रहा, क्योंकि अधिकतर हॉकर्स और वेंडर्स आमतौर पर नकद में कामकाज करते हैं। इसके अलावा, नकद में लेन-देन होने के कारण क्लासिफाइड विज्ञापन भी काफी कम हो गए थे।
जीएसटी (Goods and Services Tax)
नोटबंदी के बाद प्रिंट सेक्टर जीएसटी से भी काफी प्रभावित रहा। इस बारे में ‘मलयालम मनोरमा’ के वाइस प्रेजिडेंट वर्गीस चांडी का कहना है, ‘अभी लोग नोटबंदी से जूझ ही रहे थे कि तभी सरकार ने जीएसटी लागू कर दिया। इस तरह के कदमों से रिटेल व्यापार काफी प्रभावित रहा। कई छोटे रिटेलर्स तो मार्केट से साफ ही हो गए।’ जीएसटी से पहले जहां न्यूज प्रिंट पर तीन प्रतिशत का टैक्स लगता था, वह बढ़कर पांच प्रतिशत हो गया। इसके अलावा पहले प्रिंट एडवर्टाइजमेंट टैक्स से मुक्त था, लेकिन अब उस पर भी पांच प्रतिशत का टैक्स लगा दिया गया।
सितंबर 2017 में समाप्त होने वाली तिमाही की बात करें तो ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ और ‘मिंट’ का प्रकाशन करने वाली कंपनी ‘एचटी मीडिया’ के एडवर्टाइजिंग रेवेन्यू में पिछले साल की दूसरी तिमाही की तुलना में 8.14 प्रतिशत की कमी देखने को मिली। पिछले साल इसी अवधि के दौरान विज्ञापन रेवेन्यू 430 करोड़ रुपये था, जो घटकर 395 करोड़ रुपये रह गया।
पत्र-पत्रिकाओं का सर्कुलेशन (Circulation of print publications)
विकसित देशों के विपरीत इन दिनों हमारे देश में डेली सर्कुलेशन भुगतान में बढ़ोतरी हो रही है। दस साल के दौरान प्रिंट इंडस्ट्री की सीएजीआर (CAGR) में 4.87 प्रतिशत की ग्रोथ हो रही है। वर्ष 2016 में इंडस्ट्री की ग्रोथ में सात प्रतिशत की वृद्धि हुई है। हालांकि ग्रोथ की यह दर काफी पॉजीटिव है लेकिन रीडर्स इन दिनों डिजिटल कंटेंट में ज्यादा रुचि दिखा रहे हैं, जिसके कारण अंग्रेजी अखबारों पर कुछ ज्यादा ही दबाव है। जबकि क्षेत्रीय अखबारों की व्युअरशिप के साथ-साथ उनके विज्ञापनों में भी बढ़ोतरी हो रही है। यदि हम क्षेत्रीय अखबारों की ग्रोथ की बात करें तो यह 9.4 प्रतिशत है जबकि हिन्दी और अंग्रेजी अखबारों की ग्रोथ क्रमश: 8.3 प्रतिशत और 3.7 प्रतिशत है। जबकि ‘ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन’ (ABC) के जनवरी से जून 2017 और जुलाई से दिसंबर 2017 के आंकड़ों के अनुसार, इसके कई सदस्य प्रकाशनों के सर्कुलेशन में कमी देखने को मिली है। इन आंकड़ों के अनुसार इस दौरान विभिन्न भाषाओं में इसके सदस्य अखबारों के सर्कुलेशन की ग्रोथ 0.04 प्रतिशत घटी है।
साप्ताहिक अखबार और मैगजींस की समान स्थिति
हालांकि ये कहना मुश्किल है कि सर्कुलेशन के ग्रोथ रेट में आई गिरावट नोटबंदी और जीएसटी की वजह से ही हुई है लेकिन इस बात से पूरी तरह इनकार भी नहीं किया जा सकता है। इस बारे में ‘दिल्ली प्रेस’ के पब्लिशर परेश नाथ का कहना है, ‘पत्र-पत्रिकाएं खरीदना किसी भी व्यक्ति की पहली प्राथमिकता में शामिल नहीं है। नोटबंदी के दौरान लोग चाहते थे कि उनके पास जो नकदी मौजूद है, उसे अखबार और मैगजींस पर खर्च करने के बजाय रोजाना के इस्तेमाल की अन्य जरूरी चीजों को खरीदने में खर्च किया जाए।’
‘सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय’ (MIB) ने तीस अगस्त को अखबारों के सर्कुलेशन को वेरिफाई करने का काम ‘प्रेस इंफॉर्मेशर ब्यूरो’ (PIB) को सौंपा था। यह पहला मौका है जब पीआईबी को अखबारों के सर्कुलेशन को वेरिफाई करने का काम सौंपा गया। इससे पहले यह काम ‘रजिस्ट्रार ऑफ न्यूजपेपर्स ऑफ इंडिया’ (RNI) द्वारा किया गया था।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, मंत्रालय ने पीआईबी को यह आदेश वर्ष 2019 में होने वाले आम चुनावों को ध्यान में रखते हुए दिया है ताकि ‘विज्ञापन और दृश्य प्रचार निदेशालय’ ( डीएवीपी) को पता चल सके कि किस अखबार का वास्तविक सर्कुलेशन कितना है और उसी आधार पर अखबारों को सरकारी विज्ञापन जारी किया जा सके। गौरतलब है कि सूचना-प्रसारण मंत्रालय की नोडल एजेंसी ‘डीएवीपी’ सरकारी विज्ञापनों को जारी करती है।
सेंसरशिप (Censorship)
प्रिंट मीडिया के लिए वर्ष 2017 ऐसी तमाम घटनाओं का गवाह रहा जो इससे पहले आपातकाल के दौरान देखी गई थीं। राजस्थान में मंत्रियों, विधायकों, अफसरों और जजों को बचाने वाले विवादित विधेयक के विरोध में एक नवंबर को हिन्दी अखबार ‘राजस्थान पत्रिका’ ने पहले पेज पर संपादकीय लिखा। अखबार की ओर से कहा गया कि राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे जब तक इस काले कानून को वापस नहीं ले लेतीं, तब तक अखबार उनके एवं उनसे संबंधित समाचारों का प्रकाशन नहीं करेगा।
वहीं राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस के मौके पर 16 नवंबर को प्रेस की आजादी पर खतरा बताते हुए राजस्थान पत्रिका ने अपना संपादकीय खाली छोड़ा था। इसी तरह अपने एक पत्रकार की हत्या के विरोध में त्रिपुरा के एक अखबार ने भी पिछले दिनों अपना संपादकीय खाली छोड़ दिया था। दरअसल, त्रिपुरा राज्य राइफल्स की दूसरी बटालियन के एक जवान ने बांग्ला अखबार के पत्रकार सुदीप दत्ता भौमिक की गोली मारकर हत्या कर दी थी। बताया गया कि दोनों के बीच कहासुनी हुई थी, जिसके बाद बटालियन के जवान ने सुदीप को गोली मार दी।
वहीं, भाजपा युवा मोर्चा के कथित कार्यकर्ताओं द्वारा जलाए गए अखबार समेत त्रिपुरा से प्रकाशित होने वाले कई समाचार पत्रों ने विरोध में अपने अखबारों के संपादकीय खाली छोड़ दिए थे। गौरतलब है कि स्थानीय समाचारपत्र ‘पोकनाफाम’ की प्रतियों को नित्यापट चुथेक में भाजपा दफ्तर के बाहर कुछ अज्ञात शरारती तत्वों ने आग लगा दी थी।