May 11, 2024

शरीर में गांठ हो सकता है लिंफोमा कैंसर, क्या आपके शरीर में भी है गांठ, पढ़िए खबर

Faridabad/Alive News : शरीर में अक्सर गांठ बन जाती है और हम नज़रअंदाज कर अपने कामों में व्यस्त हो जाते हैं और अक्सर इसे लोग टीबी का लक्षण समझते हैं। लेकिन यह टीबी नहीं बल्कि लिंफोमा कैंसर भी हो सकता है! टीबी और लिंफोमा कैंसर में अंतर करना कभी-कभी मुश्किल हो जाता है।

ये है लिंफोमा कैंसर के लक्ष्यण
हर साल 15 सितम्बर को ‘विश्व लिंफोमा जागरूकता दिवस’ मनाया जाता है। अगर मरीज को बुखार, बिना किसी कारण शरीर का वजन घटना और रात में सोते समय बहुत ज्यादा पसीना आना लिंफोमा की ओर इशारा करता है। शरीर में गर्दन, बगल और थाई पर गांठ बनना आदि भी लिंफोमा के संकेत होते हैं। स्मोकिंग, अल्कोहल का सेवन, एनवायर्नमेंटल एक्सपोजर, ऑक्यूपेशनल हजार्ड (व्यावसायिक खतरा) को इसके लिए जिम्मेवार माना जाता है।

लिंफोमा को लेकर क्या कहना है डॉक्टर का
मैरिंगो एशिया हॉस्पिटल्स से ऑन्कोलॉजी विभाग डॉ. सनी जैन ने बताया कि हमारे शरीर में मौजूद लिम्फ नोड्स शरीर को किसी भी इन्फेक्शन से लड़ने के लिए तैयार रहते हैं। गला खराब होने पर गले पर कुछ गांठें बन जाती हैं, इन गांठों को लिम्फ नोड्स कहते हैं। जब लिम्फ नोड्स में अत्यधिक मात्रा में कोशिकाएं बननी शुरू हो जाती हैं तो इन लिम्फ नोड्स का आकार बढ़ने लगता है जबकि शरीर में कोई इन्फेक्शन नहीं होता। अगर, इन्फेक्शन में लिम्फ नोड्स बढ़ती हैं तो कोई समस्या नहीं है लेकिन बिना इन्फेक्शन के लिम्फ नोड्स बढ़ती हैं तो इसे लिंफोमा कहा जाता है। लिंफोमा ब्लड कैंसर का ही एक रूप है। महीने में ओपीडी में लगभग 4-5 मरीज लिंफोमा के आते है।

कितने प्रकार के होते हैं लिंफोमा
एशियन हॉस्पिटल के मेडिकल ऑन्कोलॉजी विभाग के डॉ. मृदुल मल्होत्रा ने बताया कि लिंफोमा शरीर में पडी गांठों का एक प्रकार का कैंसर होता है जो दूसरे तरह के कैंसर से थोड़ा अलग होता है। ये शरीर में किसी भी जगह पड़ सकता है। प्रदूषण, अनहेल्दी खान-पान, मोटापा और खेती में पेस्टीसाइड के अधिक प्रयोग के कारण लिंफोमा कैंसर हो सकता है। इसको अगर पहले स्टेज में पकड़ लिया जाए तो इसका इलाज किया जाना संभव है। आपको बता दें कि बीते 5 सालों में लिंफोमा कैंसर का ग्राफ दोगुना हो गया है। लिंफोमा कैंसर के दो प्रकार होते हैं जिसमें नॉन-हॉजकिन और हॉजकिन। हॉजकिन लिंफोमा आमतौर पर बच्चों में पाया जाता है जबकि नॉन-हॉजकिन लिंफोमा 24-40 साल के लोगों में देखने को मिलता है।

जितनी जल्दी होगा डायग्नोज उतना कारगर इलाज संभव
एकॉर्ड अस्पताल के कैंसर रोग विशेषज्ञ डॉ. प्रवीण मेहंदीरत्ता ने बताया कि नॉन-हॉजकिन और हॉजकिन का इलाज बहुत ही कारगर है। इसमें 4 स्टेज होती हैं। आमतौर पर इस रोग का इलाज कीमोथेरेपी और टार्गेटेड थेरेपी देकर किया जाता है। स्टेज 1 की ठीक करने की दर लगभग 95-98 प्रतिशत होती है, स्टेज 2 की ठीक करने की दर लगभग 85-90 प्रतिशत होती है, स्टेज 3 में लगभग 70-75 फीसदी और स्टेज 4 में लगभग 60-65 फीसदी बीमारी दूर हो जाती है। जितनी जल्दी बीमारी का पता चलेगा, इलाज उतना ज्यादा अच्छा होगा।

इन थेरेपी से इलाज संभव
एस्कॉर्ट्स फोर्टिस के कैंसर रोग विशेषज्ञ डॉ. मोहित शर्मा ने बताया कि इलाज करने के लिए या तो कीमोथेरेपी या कीमोथेरेपी+टार्गेटेड थेरेपी दी जाती है। टार्गेटेड थेरेपी बीमारी की डायग्नोसिस पर निर्भर करती है। बीमारी का पता करने के लिए लिम्फ नोड्स की बायोप्सी टेस्ट बहुत जरूरी होता है। बोन मैरो का भी बायोप्सी टेस्ट किया जाता है। लिंफोमा की स्टेज का पता करने के लिए सारे शरीर का पीईटी स्कैन (पॉज़िट्रॉन एमिशन टोमोग्राफी) किया जाता है। लिंफोमा का इलाज मुख्य तौर पर कीमोथेरेपी या कीमोथेरेपी+टार्गेटेड थेरेपी, रेडियोथेरेपी और बोन मैरो ट्रांसप्लांट द्वारा किया जाता है। शुरुआत में मरीज को कीमोथेरेपी या टार्गेटेड थेरेपी दी जाती है। अगर फिर भी मरीज की गांठ बच जाती हैं तो फिर इंवॉल्वड फील्ड रेडियोथेरेपी (आईएफआरटी) दी जाती है। अगर किसी मरीज को कीमोथेरेपी या रेडियोथेरेपी से आराम नहीं मिलता है तो उनमें बोन मैरो ट्रांसप्लांट करने की सलाह दी जाती है।

लोगों में जागरूकता की कमी
सर्वोदय अस्पताल के कैंसर इंस्टिट्यूट के डायरेक्टर डॉ. दिनेश पेंढारकर ने बताया कि ऊपर बताए गए सभी लक्षण लिंफोमा कैंसर के हो सकते हैं। हालांकि ये सभी लक्षण टीबी में भी होते हैं। शरीर में किसी भी पार्ट में गांठ पड़ जाती है, उसकी बायोप्सी करवाकर जांच कराई जानी चाहिए। इससे टीबी और लिंफोमा कैंसर में अंतर पता चल जाएगा। अधिकतर लोगों लिंफोमा कैंसर का नाम पहली बार सुना होगा। लोगों में इसको लेकर जागरूकता की कमी है। शरीर में अगर कोई गांठ है तो उसको नजरअंदाज कर दिया जाता है। लिंफोमा एक प्रकार का ब्लड कैंसर होता है और आज 60-70 प्रतिशत लिंफोमा के मरीज ठीक हो सकते हैं।