November 22, 2024

जानिए की कांवड़ यात्रा से जुड़ी पौराणिक मान्यताएंहर और महत्व

Delhi/Alive News: हर साल श्रावण मास में लाखों की तादाद में कांवड़िए सुदूर स्थानों से आकर गंगाजल से भरी कांवड़ लेकर पदयात्रा करके अपने गांव वापस लौटते हैं। इस यात्रा को कांवड़ यात्रा बोला जाता है।

श्रावण मास का महीना बहुत ही धार्मिक माना जाता है। श्रावण के महीने में भगवान शिव की आराधना करने का बड़ा महत्व है। इस दौरान जगह-जगह कांवड़ियों की लम्बी कतारें बम बम भोले के जयकारे लगाते हुए दिखती हैं। हर साल श्रावण मास में लाखों की तादाद में कांवड़िए सुदूर स्थानों से आकर गंगाजल से भरी कांवड़ लेकर पदयात्रा करके अपने गांव वापस लौटते हैं। इस यात्रा को कांवड़ यात्रा बोला जाता है। श्रावण की चतुर्दशी के दिन उस गंगाजल से अपने निवास के आसपास शिव मंदिरों में शिव का अभिषेक किया जाता है। इस दौरान श्रद्धालु कांवड़ को जमीन पर नहीं रखते हैं। कांवड़ चढ़ाने वाले लोगों को कांवड़ियां कहा जाता है। ज्यादातर कांवड़ियां केसरी रंग के कपड़े पहनते हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, कांवड़ यात्रा करने से भगवान शिव सभी भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं और जीवन के सभी संकटों को दूर करते हैं। आइए जानते हैं कैसे शुरू हुई कांवड़ यात्रा की शुरुआत।

पहली कथा
एक बार कामधेनु को पाने के लालच में राजा सहस्त्रबाहुने ऋषि जमदग्नि की हत्या कर दी थी। फिर पिता की हत्या का बदला लेने के लिए परशुराम ने राजा की भुजाओं को काट दिया, जिससे उसकी भी मृत्यु हो गई। भगवान परशुराम की कठोर तपस्या के बाद ऋषि जमदग्नि को जीवनदान मिल गया। तब उन्होंने अपने पुत्र परशुराम को सहस्त्रबाहु की हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए गंगाजल से भगवान शिव का अभिषेक करने को कहा। जिसके बाद परशुराम मीलों पैदल यात्रा कर कांवड़ में गंगाजल भरकर लाए और उन्होंने आश्रम के पास ही शिवलिंग की स्थापना कर भोलेनाथ का जलाभिषेक किया था। इसी कारण से भगवान परशुराम को संसार का पहला कांवड़िया कहा जाता है।

दूसरी कथा
आनंद रामायण के अनुसार भगवान राम पहले कांवड़िया थे। भगवान राम ने बिहार के सुल्तानगंज से गंगाजल भरकर देवघर स्थित बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का अभिषेक किया था। उस समय सावन मास चल रहा था। मान्यता है की तभी से कावड़ यात्रा शुरू हुई।

तीसरी कथा
धार्मिक मान्यता के अनुसार, भगवान शिव ने समुद्र मंथन में निकले विष को पी लिया था। जहर के नकारात्मक प्रभावों ने भोलेनाथ को असहज कर दिया था। भगवान शंकर को इस पीड़ा से मुक्त कराने के लिए उनके परमभक्त रावण ने कांवड़ में गंगाजल भरकर कई बरसों तक महादेव का जलाभिषेक किया था। जिसके बाद भगवान शिव जहर के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त हो गए थे। तभी से कांवड़ यात्रा का आरंभ माना गया और रावण को पहला कांवड़िया माना जाता है।

चौथी कथा
कुछ ग्रंथों में त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने पहली बार कांवड़ यात्रा शुरू की थी। श्रवण कुमार ने अंधे माता पिता को तीर्थ यात्रा पर ले जाने के लिए कांवड़ बैठाया था। श्रवण कुमार के माता पिता ने हरिद्वार में गंगा स्नान करने की इच्छा प्रकट की थी, माता पिता की इच्छा को पूरा करने के लिए श्रवण कुमार कांवड़ में ही हरिद्वार ले गए और उनको गंगा स्नान करवाया। वापसी में वे गंगाजल भी साथ लेकर आए थे।