November 24, 2024

ट्रांसजेंडर समुदाय और उनकी संस्कृति को आप कितना जानते हैं?

हिजड़ा समुदाय की सांस्कृतिक परिभाषा लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने कुछ इस प्रकार दी है, “Hijras are the oldest ethenic transgender community of india.” यानि कि हिजड़ा समुदाय भारत का सबसे प्राचीन ट्रांसजेंडर समुदाय है। ट्रांसजेंडर समुदाय की परिकल्पना भारतीय परिप्रेक्ष्य में शारीरिक कम और सांस्कृतिक ज़्यादा है। सेरेना नंदा ने ट्रांसजेंडर समुदाय की संस्कृति का गहन अध्ययन किया और इस समुदाय की संस्कृति पर उन्होंने ‘निदर मैन नार वीमेन’ नामक किताब भी लिखी। दूसरी किताब जो इस समुदाय की संस्कृति पर लिखी गई, वह है ‘विद रिस्पेक्ट टू सेक्स’ जिसे गायत्री रेड्डी ने लिखा है।

भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय की संस्कृति क्षेत्र के अनुसार भिन्न-भिन्न है। इस समुदाय में भी कई उपसमुदाय हैं, जिनकी अपनी-अपनी जीविका के अनुसार अपनी संस्कृति है, हर क्षेत्र में ट्रांसजेंडर समुदाय के अलग-अलग नाम हैं।

उत्तर भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय को हिजड़ा, किन्नर और कोती कहा जाता है। लोक नृत्य मंच पर इस समुदाय के लोगों के लिए भांड मौसी और लौंडा नाच आदि नामों का भी प्रयोग किया जाता है।

दक्षिण भारत में इन्हें अरवानी और हिज्रा कहा जाता है। धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं में इन्हें शिव-सती और मंगल मुक्ति भी कहा जाता है। इस क्षेत्र में ही जोगप्पा और अरवानी ट्रांसजेंडर समुदाय भी आते हैं। पश्चिम भारत में इन्हें बयाल्या और नाच्या भी कहते हैं। इनके लोक नृत्य को तमाशा कहा जाता है और लोक मान्यताओं में इन्हें जोगता\जोगती, बहुचाराजी ना चेला भी कहा जाता है। पूर्व भारत में इन्हें मैत्या, रयांगो, B-MSM (पूर्वोत्तर) कहते हैं।

यह समुदाय भारत के सभी इलाकों में मौजूद है। हिजड़ा समुदाय की संस्कृति एवं समलैंगिकता की परंपरा भारत में रही है, लेकिन इतिहासकारों में इसे लेकर कई मतभेद नज़र आते हैं। इतिहासकार सलीम किदवई अपनी पुस्तक ‘सेम सेक्स लव इन इंडिया’ में लिखते हैं, “समलैंगिकता के विमर्श का मुद्दा बनने से पहले ही हमारे समाज में इसे स्वीकृति मिल चुकी थी।” वहीं सेरेना नंदा ने अपनी पुस्तक ‘नीदर मैन नॉर वीमेन’ की भूमिका में लिखा है, “Homophobia in the west and the tolerance in the east” मतलब यह कि पश्चिम के लोगों में समलैंगिकों के प्रति भय रहा है और पूर्व में इनके प्रति सहिष्णुता रही है।

हिजड़ा समुदाय में ‘रीत’ की परंपरा
हिजड़ा समुदाय में नए सदस्य का प्रवेश दो तरह से होता है। एक जिसमें ट्रांसजेंडर बच्चे को स्वयं परिजन ही हिजड़ा समुदाय में दाखिल करा देते हैं या फिर हिजड़ा समुदाय बच्चे के जन्म पर बधाई देने जाकर, ऐसे बच्चे को अपने संग ले आते हैं। भारत में पैदाइशी ट्रांसजेंडर (पुट्टू कोज्जा) को अर्धनारीश्वर भी कहा जाता है या इसे अन्तःलिंगी भी कहते हैं। दूसरे तरीके का प्रवेश जिसमें स्वयं ट्रांसजेंडर लोग अपने जैसे लोगों की तलाश में 18 से 20 उम्र की आयु में स्वयं इस जमात में शामिल हो जाते हैं। नए सदस्य को हिजड़ा समुदाय में प्रवेश लेने के पहले अपना गुरु चुनना होता है। उसके बाद ‘रीत’ की रस्म निभाई जाती है जिसमें नए सदस्य को नई चोली पहनाई जाती है और उसे दुल्हन की तरह सजाया जाता है और एक त्यौहार की तरह खुशी मनाई जाती है।

निर्वाण की परंपरा
हिजड़ा समुदाय में लिंग छेदन (Castration) किए जाने की परंपरा को निर्वाण कहा जाता है। हिजड़े न पुरुष हैं और न स्त्री, हिजड़ा समुदाय में असली हिजड़ा उसे ही माना जाता है जिसका निर्वाण हुआ हो। जिस हिजड़े का निर्वाण हुआ होता है, वही नव दंपत्ति को संतान प्राप्ति का वरदान दे सकता है, क्योंकि ऐसी मान्यता है कि उनकी कुलदेवी बहुचेरा माता ने यह शक्ति मात्र छिब्री (निर्वाण किया हुआ हिजड़ा) को ही दी है। मर्दानगी का अपने शरीर में होना उन्हें असहज लगता है इस कारण वह लोग निर्वाण कर लेते हैं।

नाते रिश्तों की गुरु-चेला परंपरा
हिजड़ा समुदाय में खून के रिश्तों में विश्वास नहीं करता है, क्योंकि परिजन उन्हें पैदा होते ही बहिष्कृत कर देते हैं या परिवार की मर्यादा के लिए वे स्वयं ‘जमात’ में शामिल हो जाते हैं। गुरु-चेला परंपरा मे गुरु ही चेले के लिए माता-पिता होती है। एक ही गुरु के सभी चेले अपने आप को बहिने समझती हैं। इनमें गुरु नानी, पर नानी आदि रिश्ते भी होते हैं। यदि गुरु की मृत्यु हो जाए तो चेला दूसरा गुरु चुन सकता है। समाज द्वारा बहिष्कृत ट्रांसजेंडर बच्चों को गुरु-चेला परंपरा पनाह देती है। हिजड़ा समुदाय में कुल सात घराने हैं और हर घराने का एक मुखिया होता है, जिसे नायक कहा जाता है। ये सभी नायक मिलकर अपनी समस्याओं को सुलझने के लिए एकजुट होते हैं, जिसे ‘जमात’ कहा जाता है।

हिजड़ा समुदाय के सहयोगी उपसमुदाय और उनके बीच का संबंध
कोती शब्द को विशाल संकल्पना के रूप लिया जाए तो इसके अंतर्गत निम्न लैंगिक विविधताओं में विभाजित किया जाएगा। कोती समुदाय की अपनी जीविका और संस्कृति के कारण इसमें कई उपसमुदाय है, जिनका परस्पर संबध रहता है, क्योंकि ये सभी समुदाय मुख्यधारा से कटे हुए हैं। इनका विभाजन इस प्रकार है-

1. हिज्रा

2. चटला (साड़ी पहनने वाले)

3. कदा चटला (मर्द के कपडे पहनने वाले)

4. जनाना (स्त्री के स्वभाव वाले पुरुष\लौंडा )

5. जोगिन (भगवान की सेवा में सन्यासी बने हिजड़े)

6. शिव-सती (धार्मिक मान्यताओं के लिए हिजड़े बने पुरुष)

यह समुदाय एक ही घर के अलग-अलग सदस्यों की तरह है, इन समुदायों के अधिकतर लोगों का पेशा वैश्यावृत्ति है।

जोगिन, जोगप्पा, जोग्ता समुदाय का सम्बन्ध हिन्दू धर्म के ट्रांसजेंडर से है। धार्मिक मान्यताओं के लिए साड़ी पहनना या भगवान के साथ विवाह रचना इनकी परंपरा है, परन्तु हिजड़ा समुदाय इससे भिन्न है क्योंकि उसका कोई धर्म नहीं है। जनाना समुदाय अपनी यौन इच्छा की पूर्ति और जीविका कमाने के लिए हिजड़ा समुदाय से जुड़ता है। हिजड़ा समुदाय वैश्यावृत्ति करता है और उनके साथ मिलने से जनाना समुदाय को ग्राहक मिल जाते हैं।

हिजड़ा समुदाय में कोती और पंती की परंपरा

विवाहित हिजड़े को कोती कहा जाता है और इनके साथी को पंती कहा जाता है। देवदत्त पटनायक ने अपनी पुस्तक ‘शिखंडी’ में लिखा है कि कोती शब्द का उद्भव थाईलैंड के कोथाय शब्द से हुआ है। थाई भाषा में जनाना (सेक्स ग्रहीता) पुरुष को कोथाय कहा जाता है। मध्यकाल में दोनों देशों का सागरी मार्ग का सम्बन्ध होने के कारण यह शब्द भारत में प्रयोग किया जाने लगा। पंती शब्द का उद्भव संस्कृत के पंडा और पाली के पंडका शब्द से माना जाता है, जिसका मतलब है प्रवेशित करने वाला समलैंगिक पुरुष।

पंती पुरुष ही होते हैं, परन्तु इनकी यौन प्रथमिकताएं अलग होती हैं। यह गुदा मैथुन (Anel Sex) को प्राथमिकता देते हैं, इस कारण इन्हें हिजड़ों के साथ यौन आकर्षण एवं प्रेम होता है। हिजड़ों में कई तरह की यौनिकताएं हैं, इस समुदाय के लोग समलैंगिक, विषमलैंगिक, अंत:लिंगी, परिवर्तित लिंगी और अलिंगी होते हैं। उसी प्रकार पंती में भी कई प्रकार की यौनिकताएं हैं, पंती हिजड़ों और पुरुष दोनों के साथ यौन सम्बन्ध रखता है। हिजड़े के साथ वह मर्द की भूमिका में होता है तो पुरुष के साथ औरत की भूमिका में।

पंती प्रवेषक मर्दाना पुरुष होता है, पंडका जो होता है वह ग्राहक होता है जिसे गांडू भी कहा जाता है। समलैंगिकता को वैधानिक स्वीकृति ना होने के कारण अपनी यौन इच्छाओं की तृप्ति के लिए ज़नाना और गांडू या लौंडा समुदाय हिजड़ा समुदाय से जुड़ता है। ज़नाना समुदाय बधियाकरण या निर्वाण नहीं करवाता है, इसलिए उन्हें असली हिजड़ा नहीं माना जाता है।

ट्रांसजेंडर समुदायों की धार्मिक परंपरा

ईश्वर प्राप्ति के लिए अपनी मर्दानगी को त्यागकर परमात्मा में लीन हुए धार्मिक ट्रांसजेंडर समुदाय का उल्लेख हमें मिलता है। मक्का में पैगम्बर मुहम्मद के मकबरे के पास स्तिथ पवित्र ट्रांसजेंडर समुदाय का उल्लेख, इस्लाम में ट्रांसजेंडर समुदाय को पवित्र स्थान दिए जाने का प्रमाण है।

कर्नाटक का जोगप्पा समुदाय भी एक प्रकार का धार्मिक समुदाय है। कन्नड़ के 12वीं सदी के संत कवि बसवन्ना के काव्य में इसका उल्लेख मिलाता है। वे लिखते हैं, “परमात्मा की भक्ति में स्त्री भी हूं और पुरुष भी और मैं सदा के लिए उनकी भक्तिन बनी रहूंगी।”

महाराष्ट्र के संत कवि तुकाराम और नामदेव ने जो गीता की टीका लिखी यह संस्कृत टीका से अलग है। संस्कृत की टीका में भगवान कृष्ण को योद्धा के रूप में दिखाया गया है, परन्तु इन टीकाओं में कृष्ण को ममतामई माते के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसे विठाई कहा जाता है।

सखीभाव परंपरा के प्रवर्तक प्रियादास माने जाते है। यह एक हिन्दू सन्यासी परंपरा है, जिसमें कृष्ण की भक्ति परोक्ष रूप में की जाती है। इस परंपरा में राधा की आराधना की जाती है और राधा के ज़रिये कृष्ण को पाने का प्रयास किया जाता है।

इस समुदाय के सदस्यों में अधिकतर जनाना पुरुष होते हैं। इसका उल्लेख सेरेना नंदा ने भी अपनी पुस्तक ‘निदर मैन नॉर वीमेन’ में किया है। वह लिखती हैं, “The male devotees imitate feminine behavior, including stimulated menstruation; they also may engage in sexual acts with men as acts of devotion, and some devotee even castrate themselves in order to more nearly approximate a female identification with Radha”

ट्रांसजेंडर समुदाय की धार्मिक परंपरा देश के सभी क्षेत्रों में मौजूद है। तमिलनाडु का कोथान्दवर उत्सव ट्रांसजेंडर समुदाय का सबसे बड़ा उत्सव माना जाता है, इसके मौखिक आधार मात्र है। इस त्यौहार के दौरान ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग यहां अरवान देवता से ब्याह रचाते हैं और अरवान की मृत्यु के बाद सभी विधवा बन जाते है। इस मिथक का सम्बन्ध महाभारत से है जिसके अनुसार कुरुक्षेत्र में शक्ति को अपने अधीन करने के लिए पांडवों को अर्जुन के पुत्र अरवान की बलि देनी पड़ी थी। बलि चढ़ने के पहले उसकी इच्छा थी कि उसके साथ कोई महिला विवाह करे लेकिन इसके लिए कोई तैयार नहीं था ऐसे में कृष्ण ने मोहिनी रूप धारण कर उससे विवाह किया और विधवा हो गई।