संभवतः भारत एक ऐतिहासिक दौर से गुज़र रहा है। जब भारत के अधिकतर आबादी के मुद्दों को हल ना किये जाने से क्षुब्ध जन-आक्रोश सड़कों पर उतरता जा रहा है। किसान, मज़दूर और विद्यार्थियों का प्रदर्शन आये-दिन दिख रहा है और आने वाले दिनों में सामाजिक-राजनैतिक ताकतें इन प्रदर्शनों को बंद और आंदोलन का स्वरुप देने में अहम भूमिका निभाएंगे ही, चुनाव जो नज़दीक है!
आज जब मैं यह लेख लिख रहा हूं, टाटा सामाजिक विज्ञान संसथान के छात्रों के स्ट्राइक का 28वां दिन है। छात्र समावेशन और समता के लिए लड़ रहे हैं। पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप में कटौती की जा रही है, जो की पिछड़े आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि से आये छात्रों के लिए पढ़ाई पूरा करने का आधार है। कारण और बहानों के निर्माण में विशेषज्ञता वाली ये सरकार सेल्फ-सस्टेनेबल संस्थानों की बात कर रही है। छात्रवृति की सुविधाओं में कमी सरकारी गैर-समावेशी नीति का ना सिर्फ धोतक है बल्कि शिक्षा के माध्यम से समता लाने के ध्येय का अंतर्विरोध भी है।
हालांकि मूल बात यह है कि बात कुछ और ही है। TISS एक संस्थान मात्र नहीं है, यह एक इंटरवेंशन है जो सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के शिकार विद्यार्थियों को श्रेष्ठतम संस्थान में पढ़ाई पूरा करने का स्वप्न पूरा करने में मदद करता है और रोज़गार भी दिलवा जाता है।
पांच हजार प्रति दिन खर्च करने वाले छात्र और पूरे सत्र के लिए 5000 रुपये घर से लेकर आने वाले छात्र सहज ही देखने को यहा मिल जायेंगे। यही संस्थान 26 फरवरी को निकाले गए नोटिस में संसाधनों की कमी का हवाला देते हुए, भोजन, निवास और ट्यूशन फीस का अतिरिक्त बोझ आर्थिक रूप से पिछड़े विद्यार्थियों पर डाल देती है। हालांकि संसाधन जुटाने की कटिबद्धता प्रशंसनिय है परन्तु बदली हुई केंद्र सरकार का असर साफ दिखाई देता है।
ऐसा नहीं है की “TISS” जैसे संस्थानों की महत्ता सरकार नहीं समझती है, अच्छे से समझती है और विश्लेषण भी करती होगी। और विश्लेषण में लाल रंग दिखता होगा। राजनीतिक द्वंदिता में काँग्रेस को निशाना लगाने वाली भाजपा सरकार अच्छे से समझती है कि उनकी वैचारिक लड़ाई लाल रंग वाले कम्युनिस्टों से है। और विचारों का श्रोत ये शिक्षण संस्थान ही तो हैं। तो एक-एक करके क्रम बद्ध तरीके से इन संस्थानों के संसाधनों को नियंत्रित कर शिक्षण संस्थानों को नियंत्रित किया जाना, उसी विरोधी विचार प्रवाह को ख़त्म करना है।
पहले JNU में ये जतन किया जा चुका है। JNU और TISS में विवेकानंद चेयर वैचारिक द्वंद का परिणाम मात्र है ना कि विवेकानंद का समावेशी और समभाव वाले विचारो का प्रभाव। हालांकि बात रंगों की कभी नहीं रही, लड़ाई मुद्दों की है। शिक्षा केन्द्रों को तबाह करके हिन्दुस्तान के भविष्य को ही तबाह किया जा रहा है।
आज जहां उच्च शिक्षारत विद्यार्थियों, जो एक राज्यकर्मी के बराबर योगदान देते हैं उन्हें कर्मचारियों का दर्जा देने की बात होनी चाहिए वहीं उसकी जगह उनको शिक्षा से रोकने के किये हर जतन किये जा रहे हैं। TISS जैसे संस्थान संवेदनशीलता, सम्यक भाव और न्याय की भावना का इको-सिस्टम है। यहां भारत के हर प्रांत,भाषा, संस्कृति और सम्प्रदायों का प्रतिनिधित्व देखा जा सकता है। “भारत” को इस लघु भारत में महसूस किया जा सकता है, परखा जा सकता है। फलतः दृष्टिकोण की स्वीकार्यता में अद्भुत बदलाव होते हुए स्वाभाविक रूप से देखा जा सकता है।
जो भी इस संस्थान का हिस्सा रहे हैं वो TISS में पढ़ाई के दौरान लोगों के और स्वयं के जीवन के हुए बदलाव को होते हुए महसूस कर सकते हैं, संवेदनशील बनते हुए देख सकते हैं। जन-कल्याण, सबका साथ-सबका विकास जैसी समावेशी नारे वाली सरकार का समता और न्याय से इतनी विरक्ति कि हर तरफ लाल रंग ही दिखाई दे ये सत्ता का मोतियाबिंद है।
ट्रेनों, बसों, और सरकारी स्थापनाओ को देखकर बड़ा खेद होता था कि पिछली सरकारें हमारे मूल अकांक्षाओ को भी पूरा नहीं कर पाई,परन्तु आज यह प्रतीत होता है, कि ये मौलिक स्थापनाएं अगर पिछली सरकार जितनी भी मौलिकता और गुणवत्ता बनाये रखे तो यही वर्तमान सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी। वैसे भी, अभी तो आगाज़ है, अभी बहुत कुछ बाकि है। रोचक होगा ये देखना कि JNU और TISS के बाद अब किसकी बारी आने वाली है।
सरकार कोई भी हो, ये संकल्प साध क्यूं नहीं लेती कि अपने मेरिट से प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने वालों का धन के कारण शिक्षा ना रुके। खैर सरकारें इसलिए बनती कहां हैं!