New Delhi/Alive News : उत्तर प्रदेश की पूर्व सीएम और बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती का आज (15 जनवरी) 62वां जन्मदिन है. इस मौके पर बीएसपी प्रमुख ने लखनऊ में ‘मेरे संघर्षमय जीवन और बीएसपी मूवमेंट का सफरनामा’ का विमोचन किया. इस किताब को ‘ब्लू बुक’ का नाम दिया गया है. इस किताब में बीएसपी के खड़े होने के शुरुआती दौर की कहानी बताई गई है. एक चैनल के अनुसार अपने जन्मदिन की अवसर पर हर बार की तरह इस बार भी गुलाबी रंग का सूट पहने मीडिया के सामने आईं बीएसपी प्रमुख मायावती ने केंद्र की मोदी सरकार पर जमकर निशाना साधा.
मायावती ने कहा कि ‘हर हर मोदी ,घर-घर मोदी का नारा देने वाले नरेंद्र मोदी जी इस बार अपने ही घर गुजरात में बेघर होते-होते बच गए’ बीएसपी प्रमुख ने इस दौरान कांग्रेस पार्टी पर भी निशाना साधा. मायावती ने कहा, ‘आजादी के बाद से कांग्रेस और अब बीजेपी ने हर वर्ग को नुकसान पहुंचाया है, आज हर राज्य में सांप्रदायिक और जातिवादी माहौल बनाया जा रहा है.’
क्या है मायावती की ‘ब्लू बुक’
यूपी नगर निकाय चुनाव में बेहतर प्रदर्शन के बाद बीएसपी के हौंसले बुलंद नजर आ रहे हैं. पार्टी को अस्तित्व में लाने के लिए कितना संघर्ष किया गया उसकी जानकारी आम कार्यकर्ताओं को देने की तैयारी की जा रही है. इसलिए आज पार्टी अध्यक्ष के जन्मदिन और उनके द्वारा किए गए संघर्षों की किताब ब्लू बुक को हथियार बनाया गया है. जानकारों के मुताबिक मायावती का मानना है कि ब्लू बुक के जरिए 2019 में उन्हें फायदा हो सकता है.
नए दलित नेतृत्व से चिंतित है मायावती
गुजरात में दलित चेहरे के रूप में उभरे और विधायक बने जिग्नेश मेवाणी और पश्चिमी यूपी में भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर के बीच की नजदीकी को देखकर बीएसपी सतर्क हो गई है. ऐसी खबर है कि यूपी में बीएसपी के कार्यकर्ता अपनी नेता के जन्मदिन पर जिला स्तर पर सहारनपुर हिंसा में शब्बीरपुर कांड के तहत दलित उत्पीड़न के मुद्दे पर बनी सीडी दिखाएगी. इससे दलित समाज में यह संदेश देने की कोशिश की जाएगी कि बीएसपी दलितों के साथ हुए अन्याय को भूली नहीं है. यहां पार्टी काडर और दलितों को यह संदेश देने की कोशिश भी होगी कि इसी वजह से मायावती ने राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था.
कैसे बनीं दलितों की ‘माया’
देश में जब कभी पिछड़ी जाति और दलित वर्ग के अधिकारों की बात की जाती है, तो सबसे पहले जुबान पर डॉ. भीमराव अंबेडकर, कांशीराम का नाम आता है. लेकिन 21वीं सदी में जिस महिला दलित नेता के नाम की गूंज पूरे उत्तर भारत में है, वह हैं ‘मायावती’. समर्थक उन्हें ‘बहनजी’ कहते हैं. दक्षिण भारत में भी वह अपनी पहचान की मोहताज नहीं हैं.
15 जनवरी, 1956 को दिल्ली में दलित प्रभु दयाल और रामरती के परिवार में जन्मीं चंदावती देवी को आज पूरा भारत मायावती के नाम से जानता है. पिता प्रभु दयाल सरकारी कर्मचारी थे. वह भारतीय डाक-तार विभाग में वरिष्ठ लिपिक के पद से सेवानिवृत्त हुए. मां रामरती ने अनपढ़ होने के बावजूद अपने आठ बच्चों (छह लड़के और दो लड़कियां) की शिक्षा-दीक्षा का पूरा जिम्मा उठाया.
जैसे हर पिता का सपना होता है कि उसका बच्चा लायक बने, ठीक उसी तरह प्रभु दयाल ने अपनी बेटी को प्रशासनिक अधिकारी के रूप में देखने का सपना संजोया था. उनका सपना साकार करने के लिए मायावती ने काफी पढ़ाई भी की. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के कालिंदी कॉलेज से कला विषयों में स्नातक किया. गाजियाबाद के लॉ कॉलेज से कानून की परीक्षा पास की और मेरठ यूनिवर्सिटी के वीएमएलजी कॉलेज से शिक्षा स्नातक (बी.एड.) की डिग्री ली.
शिक्षा स्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद उन्होंने दिल्ली के ही एक स्कूल में बतौर शिक्षिका के रूप में अपने करियर की शुरुआत की. लेकिन अध्यापन के क्षेत्र में मायावती के कदम तब डगमगा गए, जब वर्ष 1977 में उनकी जान-पहचान कांशीराम से हुई. कांशीराम ने मायावती के जीवन पर बहुत प्रभाव डाला.
मायावती के जीवन में कांशीराम के बढ़ते प्रभाव को देख पिता प्रभु दयाल चिंतित हुए. उन्होंने बेटी को कांशीराम के पदचिह्नें पर न चलने का सुझाव दिया, लेकिन मायावती ने अपने पिता की बातों को अनसुना कर दलितों के उत्थान के लिए कांशीराम द्वारा बड़े पैमाने पर शुरू किए गए कार्यो व परियोजनाओं में शामिल होना शुरू कर दिया.
लगभग सात साल तक कांशीराम से जुड़े रहने के बाद उन्होंने 1984 में अध्यापन क्षेत्र से अपने कदम वापस खींच लिए और इसी वर्ष कांशीराम द्वारा स्थापित बहुजन समाज पार्टी (बसपा) में शामिल हो गईं.
शिक्षिका से राजनेता बनीं मायावती ने वर्ष 1984 में ही मुजफ्फरनगर जिले की कैराना लोकसभा सीट से अपना प्रथम चुनाव अभियान शुरू किया, लेकिन उन्हें जनता का साथ नहीं मिला. इसके बाद उन्होंने लगातार चार साल तक कड़ी मेहनत की और वर्ष 1989 का चुनाव जीतकर पहली बार लोकसभा पहुंचीं. इस चुनाव में बसपा को 13 सीटें मिलीं. खुद मायावती बिजनौर लोकसभा सीट से सांसद निर्वाचित हुईं.
उन्होंने देश के सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश की राजनीति को समझा और दलित मुद्दे को उठाते हुए अपनी आवाज बुलंद की. धीरे-धीरे उनकी पैठ दलितों के साथ-साथ मुस्लिम समुदाय में भी बढ़ती चली गई. वर्ष 1995 में हुए विधानसभा चुनाव में गठबंधन की सरकार में उन्होंने पहली बार मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल किया. वह उत्तर प्रदेश में दलित मुख्यमंत्री बनने वाली पहली महिला हैं.
मायावती 13 जून, 1995 से 18 अक्टूबर, 1995 तक मुख्यमंत्री रहीं. उनका पार्टी में बढ़ता रुतबा और लोगों की पसंद देख कांशीराम उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित करने के लिए मजबूर हो गए. कांशीराम ने मायावती को वर्ष 2001 में पार्टी अध्यक्ष घोषित कर दिया.
मायावती ने दूसरी बार 21 मार्च 1997 से 20 सितंबर 1997, 3 मई 2002 से 26 अगस्त 2003 और चौथी बार 13 मई 2007 से 6 मार्च 2012 तक उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री की कमान संभाली.
दलित नेता की उपलब्धियों के बीच विवादों का मायावती से चोली-दामन का साथ रहा. सबसे पहले मायावती के साथ जो विवाद जुड़ा, वह ताज कॉरिडोर मामले में घोटालों का था, जिस कारण वह सीबीआई के घेरे में आईं. वर्ष 2003 में सीबीआई ने मायावती के आवास पर छापा मारा और उनके पास आय से अधिक संपत्ति होने का पता चला. इसके अलावा मायावती वर्ष 2007 में विभिन्न कारणों से विवादों में रहीं. चाहे वह नोटों की माला पहनने का मामला हो या फिर विदेशों से सैंडल मंगवाने का. अपने जन्मदिन को अनोखे तरीके से मनाने का विवाद भी उनके पीछे साए की तरह रहा. इससे इतर अपने चौथे कार्यकाल के दौरान मायावती ने राज्य के विभिन्न जगहों पर बौद्ध धर्म और दलित समाज से संबंधित कई मूर्तियों का निर्माण करवाया, जिसमें नोएडा के एक पार्क में बनीं हाथियों की मूर्तियां काफी विवादों में रहीं. मायावती को 2014 के लोकसभा चुनाव में हालांकि सबसे तगड़ा झटका लगा. उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश में खाता भी नहीं खोल पाई. उसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को केवल 19 सीटें हासिल हुईं. मायावती ने अपने जीवन और बहुजन आंदोलन के सफर के बारे में एक किताब भी लिखी. तीन भागों में प्रकाशित यह किताब काफी चर्चित रही. इसके साथ ही उनके राजनीतिक संघर्ष पर वरिष्ठ पत्रकार अजय बोस की किताब ‘बहनजी : अ पॉलिटिकल बायोग्राफी ऑफ मायावती’ अब तक की सर्वाधिक प्रशंसनीय पुस्तक मानी जाती है.