क्या हम औरतें बिना किसी साथी के कहीं सफर नहीं कर सकती हैं? क्या वो दिन कभी नहीं आएगा जब हर एक लड़की समाज की बुराइयों को पीछे धकेल अपने सपनों को जी पायेगी, कहीं सफर कर पाएगी? क्या वह भी बहती नदी की आवाज़ अकेले सुन सकेगी? क्या वह भी कभी चिड़ियों के संग अकेले गा सकेगी? क्या वह भी कभी पहाड़ों की कठोरता को अपने पैरों से स्पर्श कर सकेगी? क्या वह भी कभी मूसलाधार बारिश में खुद को भिगो सकेगी? क्या वह भी कभी किसी पहाड़ की चोटी पर बैठ चांदनी रात में चांद-तारों संग बात कर पाएगी? क्या देश का हर एक कोना ऐसे ही हम महिलाओं के लिए हमेशा असुरक्षित रहेगा?
अभी हाल ही में मैं नई दिल्ली से सिकंदराबाद ट्रेन में अकेले सफर कर रही थी और अकेले सफर करना एक चुनौती होती है हम लड़कियों के लिए, खासकर कि रात का सफर। चुनौती का सामना तब करना होता है जब लोग हमें लगातार घूरने लगते हैं।
लगभग 10 बजे तक सभी सो चुके थे लेकिन सफर में मुझे नींद कम ही आती है, इसलिए मैं एक उपन्यास पढ़ रही थी। जब हमें कोई घूर रहा होता है तो असहज स्थिति पैदा होने लगती है, ट्रेन में भी ऐसा ही हुआ। जब मैं किताब पढ़ रही थी और मेरी नज़र एक व्यक्ति पर पड़ी जो मुझे लगातार घूरे जा रहा था। मैंने पहले तो उसे अनदेखा किया, लेकिन उसका लगातार देखना मुझे असहज करने लगा था।
मैं उठकर मुंह-हाथ धोने गयी और वापस आकर फिर पढ़ने लगी, लेकिन उस व्यक्ति का घूरना बंद नहीं हुआ। मुझे गुस्सा तो इतना आ रहा था कि लग रहा था कि अभी इसको सबक सिखा दूं। एक तो वह शराब के नशे में था और दूसरा लगातार मुझे घूर रहा था। मेरे दो बार टोकने पर कि ‘भाई कोई काम नहीं है?’ उसे जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ा और अंततः मैंने उसे चिल्लाकर कहा कि ‘तुझे मुझे घूरने के आलावा और कोई काम नहीं है क्या?’ तब वह वहां से उठकर चला गया।
वहीं एक अंकल टॉयलेट के बहाने बार-बार देखते हुए आते और देखते हुए जाते। जब वो हर थोड़ी देर में ऐसा करने लगे तो मैंने गुस्से में उनसे कहा, “आपको वाशरूम जाना है जाइए, लेकिन मुझे देखते हुए जाना है और देखते हुए आना है तो आपका यहां से वाशरूम जाना और आना बंद हो जायेगा।”
वे लोग चले तो गए लेकिन मेरा मन अशांत हो गया। समझ नहीं आ रहा था कि क्यों होता है ऐसा हमारे साथ। इतनी पब्लिक के बीच भी हम सुरक्षित नहीं हैं और यह घटना हमारे साथ लगभग हर दिन होती है, फिर चाहे वो देश की कोई भी जगह हो। कैसे मुक्ति मिलेगी हमें इससे? घर से कॉलेज तक के सफर में इतने लोग घूरते हैं कि सबको टोका या उन पर चिल्लाया नहीं जा सकता।
क्या मेरे देश के पुरुष घूरने की इस आदत से बाज़ नहीं आ पाएंगे? कैसे लगता है जब आपको कोई लगातार घूरे? मेरा तो खून खौल जाता है।
मन करता है सीधे जाकर घूरने वाले की आंख फोड़ दूं। (जी हां ये हिंसक है, लेकिन सच में कभी-कभी ऐसे ही मन करता है) लेकिन ऐसा कर नहीं पाती हूं। इन घूरने वाले से तेज़ आवाज़ में यही कह पाती हूं कि घूरने के अलावा और कोई काम नहीं है क्या?
पता नहीं क्या चल रहा होता है इन घूरने वाले लोगों के मन में? न जाने क्या दिखता है इन्हें हमारे चेहरे में, शरीर के कुछ उभरते हिस्सों में या कहें कि पूरे शरीर में।
ये जो लोग ऐसे घूरते हैं क्या इन्हें बचपन से ट्रेनिंग मिल रही होती है, तभी शायद इतने ढीठपने से देखते हैं या हमारे समाज के कुछ लोगों से इन्हें संक्रमण की यह बीमारी लग जाती है? कानून कहता है कि 14 सेकंड से ज़्यादा कोई आपको देखे तो उसे घूरना कहते हैं और आप इसकी शिकायत कर सकते हैं, लेकिन ये लोगों को पता कहां हैं?