November 23, 2024

छावला गैंगरेप : ये नहीं तो फिर दोषी कौन?

सुप्रीम कोर्ट ने छावला गैंगरेप के दोषियों को बरी कर दिया है। जब कि पहले लोअर कोर्ट ने घटना को जघन्य अपराध मानते हुए दोषियों को फांसी की सजा सुनाई थी जिसे दिल्ली हाईकोर्ट ने भी बरकरार रखा था। हाईकोर्ट ने दोषियों के लिए बेहद तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा था- ये वो हिंसक जानवर हैं, जो सड़कों पर शिकार ढूंढते हैं। अब सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने लोअर कोर्ट व हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया है। अब प्रश्न यह है कि घटित जघन्य अपराध के लिए ये लोग दोषी नहीं, तो और कौन?
गौरतलब है कि 14 फरवरी 2012 को हरियाणा के रेवाड़ी में 19 साल की लड़की की बॉडी मिली थी। उसे दिल्ली के छावला से अगवा कर गैंगरेप किया गया था। लड़की का सही नाम छुपा कर उसे छावला नाम दिया गया था।

2012 में दिल्ली के छावला में हुए गैंगरेप केस में सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को चौंकाने वाला फैसला दिया। सुप्रीम कोर्ट ने गैंगरेप के 3 दोषियों को बरी कर दिया। 9 फरवरी 2012 को उत्तराखंड की 19 साल की लड़की का अपहरण किया गया था। कई दिनों बाद 14 फरवरी को लड़की की बॉडी हरियाणा के रेवाड़ी में एक खेत में मिली थी। बॉडी को जला दिया गया था।

दिल्ली के नजफगढ़ में केस दर्ज किया गया था। शिकायत में कहा गया कि आरोपी लड़की को गाड़ी में बिठाकर दिल्ली से बाहर ले गए थे। गैंगरेप के दौरान उसके शरीर को सिगरेट से दागा और चेहरे पर तेजाब डाला गया। उसके शरीर पर कार में रखे औजारों से हमला किया गया। इसके बाद हत्या कर दी। इस केस में रवि कुमार, राहुल और विनोद को आरोपी बनाया गया था। गैंगरेप के 2 साल बाद आरोपियों को फांसी सुनाई गई। 2014 में निचली अदालत ने रवि, राहुल और विनोद को दोषी पाया और उन्हें फांसी की सजा सुनाई। हाईकोर्ट ने भी फांसी की सजा को बरकरार रखा था।

छावला गैंगरेप के खिलाफ दिल्ली में कई प्रदर्शन भी हुए थे। दोषियों ने सुप्रीम कोर्ट में सजा कम करने की अपील की। जिसका पुलिस ने विरोध करते हुए कहा था कि यह अपराध केवल पीड़िता के खिलाफ नहीं है, बल्कि यह समाज के खिलाफ अपराध है। दिल्ली पुलिस ने कहा था कि यह जघन्य अपराध है। एडिशनल सॉलिसिटर ने भी कहा कि लड़की के शरीर पर 16 गंभीर चोटें थीं। लड़की की मौत के बाद उस पर 10 वार किए गए। पीड़ित लड़की के पिता ने भी कहा था कि मामले के दोषियों को फांसी की सजा बरकरार रखी जाए। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कॉर्ट ने कहा कि “भावनाओं को देखकर सजा नहीं दी जा सकती है। सजा तर्क और सबूत के आधार पर दी जाती है। अदालत को पुलिस जांच में कमियां दिखीं।

सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि पुलिस ने ठीक से जांच नहीं की। जांच से कहीं साबित नहीं होता कि अपराध इन तीनों ने ही किया। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ललित, जस्टिस एस रवींद्र भट और जस्टिस बेला एम त्रिवेदी की बेंच ने पुलिस की जांच में कमी के चलते दोषियों को बेनिफिट ऑफ डाउट देते हुए रिहा कर दिया।
दोषियों की रिहाई पर लड़की के पिता ने कहा कि हम यहां न्याय के लिए आए थे। यह अंधी कानून व्यवस्था है। दोषियों ने हमें कोर्ट रूम में ही धमकाया था। हमारे 12 साल के संघर्ष को नजरअंदाज कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से हम टूट गए हैं, लेकिन कानूनी लड़ाई जारी रखेंगे। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद एक बहस छिड़ गई है कि अगर लोअर के बाद हाई कोर्ट से भी फांसी की सजा पाने वाले ये तीनों आरोपी रेप और हत्या के दोषी नहीं हैं तो फिर दूसरे कौन हैं? मेडिकल रिपोर्ट में बर्बरता और हत्या की पुष्टि हुई थी।

अब ये कौन बताएगा कि कौन हत्यारे थे और किसने वीभत्स रेप को अंजाम दिया था। न्यायिक प्रणाली में अक्सर यह कहा जाता है कि भले 100 गुनहगार छूट जाएं लेकिन किसी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। हमारे देश की अदालतें इस सिद्धांत पर पूरी तरह अमल करती हैं और करना भी चाहिए। यह अदालतों की जिम्मेदारी भी है कि किसी निर्दोष को सज़ा बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। लेकिन इस सिद्धांत में खामी यह है कि 100 तो क्या, एक भी गुनहगार बचना क्यों चाहिए? पुलिस, जांच एजेंसी और अदालतों को सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई अपराधी सज़ा से नहीं बच पाए। क्योंकि सवाल न्याय का है।

हम मानते हैं कि जब निचली अदालतों से न्याय नहीं मिलता है तभी लोग उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाते हैं। सभी को यह अधिकार है। लोअर कोर्ट, हाई कोर्ट से फांसी की सजा पाए दोषियों ने भी इस अधिकार का प्रयोग किया। जहां उन्हें सफलता भी मिली। सुप्रीम कोर्ट का फैसला सही भी हो सकता है लेकिन लड़की के साथ जघन्य अपराध हुआ तो है, उसकी हत्या तो हुई है। बरी हुए लोग इस जघन्य अपराध के दोषी नहीं हैं तो दोषी कौन हैं? एक निर्धारित समय में दोषियों की पहचान करके उन्हें सजा दिलाने के लिए तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए।

ऐसा आदेश अगर सुप्रीम कोर्ट ने दिया है तो हम उसका स्वागत करते हैं और अगर नहीं दिया है तो देना चाहिए। तभी दिवंगत आत्मा को शांति पहुंचेगी और पीड़ित परिवार के साथ सही न्याय होगा। इस तरह के जघन्यतम अपराध में शामिल वास्तविक दोषियों को कठोर सजा यानी फांसी मिलनी ही चाहिए। अंत में उच्चतम न्यायालय के फैसले के मद्देनजर अगर निचली अदालत ने, जांच एजेंसी ने,जांच अधिकारी ने जांच में गलती की है तो जांच अधिकारी को जेल भेजना चाहिए। अपर्याप्त सबूत के आधार पर सजा सुनाने वाले निचली अदालत के जज को छुट्टी पर भेज देना चाहिए इससे कम से कम भविष्य में इस तरह के मामलों की जांच करते समय जांच अधिकारी ठीक तरीके से जांच तो करेंगे।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह जरूर कहा है कि ट्रॉयल कोर्ट चाहे तो दोबारा नए सबूत मंगा सकती है और विचार कर सकती है कि अपराधी कौन था? लेकिन अब 11 साल बाद सबूत कितने मिलेंगे और कहां से मिलेंगे? इस पर सवालिया निशान तो रहेगा ही।

(ये लेखक कैलाश शर्मा के निजी विचार है, लेखक स्वतंत्र पत्रकार और एक विचारक हैं।)