भले यह माना जा रहा हो कि अरुण जेटली पर हमले करने के लिए प्रधानमंत्री ने स्वामी को सार्वजनिक तौर पर झाड़ लगाई है लेकिन, कई जानकार इसे दूसरे ढंग से देखते हैं
बीते कई दिनों से भारतीय जनता पार्टी के नेता और राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली पर लगातार हमले बोल रहे थे. जेटली भी ट्विटर पर अपना बचाव कर रहे थे लेकिन, स्वामी के हमले थमने का नाम नहीं ले रहे थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक टीवी इंटरव्यू में इस विषय पर पूछे गए सवाल पर जो जवाब दिया, उसे स्वामी को उनकी फटकार के तौर पर देखा गया. लेकिन कई जानकार और खुद पार्टी के ही कुछ लोग इसे अलग ढंग से भी देख रहे हैं.
इन लोगों को यह मानना है कि जीएसटी को लेकर जिस तरह से राज्यों को अपने साथ लाने का काम केंद्र सरकार या यों कहें कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने किया, उससे पार्टी की आंतरिक राजनीति में उनका प्रभाव बढ़ता हुआ दिख रहा था. जीएसटी पर वे न सिर्फ राज्यों को साथ लाए बल्कि एक तरह से उन्होंने कांग्रेस को भी अप्रासंगिक कर दिया. इसे पार्टी के अंदर जेटली की एक बड़ी कामयाबी के तौर पर भी देखा जा रहा था.
सवाल यह उठता है कि क्या प्रधानमंत्री तब भी यही बात कहते जब स्वामी, अमित शाह या खुद उनके खिलाफ ऐसे और लगातार हमले करते?
जानकारों का मानना है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की अगुवाई वाली भाजपा कभी भी अरुण जेटली को एक स्तर से अधिक ताकतवर नहीं दिखने देना चाहती. ऐसे में सुब्रमण्यम स्वामी का जेटली पर हमले करना और प्रधानमंत्री का इस पर, उन्होंने जो कहा, वह कहना, महत्वपूर्ण हो जाता है.
जानकारों के मुताबिक भले ही मीडिया कुछ भी कहे लेकिन जिस तरह के कठोर कदम की उम्मीद इस मामले में जेटली प्रधानमंत्री से लगाए बैठे थे, उसमें अंतत: उन्हें निराशा ही हाथ लगी है. प्रधानमंत्री मोदी ने अपने साक्षात्कार में सुब्रमण्यम स्वामी की बातों के संदर्भ में इतना ही कहा कि ऐसे लोगों की बातों को मीडिया को बहुत प्रमुखता नहीं देनी चाहिए और इन्हें दरकिनार करना चाहिए. ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या प्रधानमंत्री तब भी यही बात कहते जब स्वामी, अमित शाह या खुद उनके खिलाफ ऐसे और लगातार हमले करते?
सच्चाई यह है कि स्वामी को लोग कितना भी बड़बोला कहें लेकिन उन्हें बहुत अच्छे से मालूम है कि चोट कहां और कब करनी है. दिल्ली और बिहार की करारी हार के बाद भी उन्होंने अमित शाह के खिलाफ कुछ नहीं बोला. क्योंकि उन्हें मालूम था कि ऐसा करने से उन पर तुरंत और कड़ी कार्रवाई होनी ही थी. जबकि जेटली के बारे में वे जानते हैं कि एक परिस्थिति विशेष में यदि वे उन पर हमला करेंगे तो न केवल पार्टी का शीर्ष नेतृत्व उनसे ज्यादा कुछ नहीं कहेगा बल्कि पार्टी और संघ का एक मजबूत धड़ा भी उनके साथ रहेगा. पार्टी और संघ में कई ऐसे लोग हैं जो मानते हैं कि मोदी सरकार की जो भी नीतियां अलोकप्रिय हो रही हैं, उसकी जड़ में अरुण जेटली और उनका वित्त मंत्रालय ही है.
पिछले साल के अंत में जब जेटली दिल्ली जिला क्रिकेट संघ (डीडीसीए) विवाद में उलझे थे तो उस वक्त भी सवाल उठा था कि क्या भाजपा को चलाने वाले नेता अरुण जेटली की बेदाग छवि को दागदार होने से बचाने के लिए इतने ही गंभीर हैं.
व्यावहारिक तौर पर देखें तो पार्टी के बड़े निर्णय लेने वालों में इनके अलावा राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी, अरुण जेटली और सुषमा स्वराज शामिल हैं. डीडीसीए प्रकरण से पहले इनमें से सिर्फ जेटली ही ऐसे थे जो गंभीर आरोपों में कभी बुरी तरह नहीं घिरे थे.
अभी सुब्रमण्यम स्वामी और डीडीसीए विवाद के वक्त कीर्ति आजाद के हमलों के वक्त यदि कुछ लोगों को लगा कि पार्टी औऱ उसके शीर्ष नेतृत्व ने अरुण जेटली का ठीक से बचाव नहीं किया तो उनके पास इसके कुछ कारण भी हैं. इन्हें समझने के लिए जेटली के राजनीतिक इतिहास को भी थोड़ा जानने की जरूरत है.
जेटली की राजनीतिक पहचान की बात करें तो वे अब तक छात्र संघ के चुनाव को छोड़कर किसी भी ऐसे चुनाव में जीत हासिल नहीं कर पाए हैं, जिनमें जनता सीधा मतदान करती है. इसका मतलब यह हुआ कि उनकी पहचान एक जमीनी पकड़ वाले नेता की नहीं है. इसके बावजूद अगर जेटली एक दशक से अधिक वक्त से भाजपा के शीर्ष नेताओं में शुमार किए जाते हैं तो इसकी भी कुछ वजहें हैं. पार्टी के अंदर और बाहर उनकी पहचान सियासी दांवपेंच में माहिर एक ऐसा नेता की रही है जिसे आर्थिक मोर्चे पर बेईमान नहीं माना जाता.
यहां यह जानना जरूरी है कि मोटे तौर पर धारणा यह है कि भाजपा को नरेंद्र मोदी और अमित शाह चला रहे हैं. लेकिन व्यावहारिक तौर पर देखें तो पार्टी के बड़े निर्णय लेने वालों में इनके अलावा राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी, अरुण जेटली और सुषमा स्वराज शामिल हैं. डीडीसीए प्रकरण से पहले इनमें से सिर्फ जेटली ही ऐसे थे जो गंभीर आरोपों में कभी बुरी तरह नहीं घिरे थे.
पार्टी के अंदर ही कई लोग ऐसे मिलते हैं जो मानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की कार्यशैली ऐसी है कि पार्टी में उनके अलावा और कोई भी नेता एक सीमा से अधिक मजबूत नहीं हो सकता. एक समय राजनाथ सिंह पार्टी में नंबर दो बनकर उभर रहे थे लेकिन तभी उनके बेटे पंकज सिंह का ट्रांसफर-पोस्टिंग के लिए रिश्वत मांगने का मामला सामने आ गया. इसने राजनीतिक तौर पर उन्हें कमजोर जरूर कर दिया.
कुछ ऐसा ही केंद्रीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के साथ भी हुआ. ललित मोदी से जुड़े विवादों की वजह से स्वराज न सिर्फ पार्टी की आंतरिक राजनीति में रक्षात्मक होने को मजबूर हो गईं बल्कि उनके लिए अपना मंत्रिपद बचाए रखना ही सबसे बड़ा संघर्ष बन गया.
जब 2014 में अमृतसर से जेटली लोकसभा चुनाव हार गए थे तो उस वक्त पार्टी में उनके प्रतिस्पर्धियों को थोड़ी राहत जरूर मिली थी लेकिन बाद में मोदी सरकार में जिस मजबूती से वे उभरे उससे उनके प्रतिस्पर्धियों का चिंतित होना स्वाभाविक ही था
संघ नेतृत्व के बेहद करीब माने जाने वाले और मोदी सरकार में अपने कामकाज से सभी को प्रभावित करने वाले नितिन गडकरी भी आर्थिक अनियमितताओं के आरोपों से बचे नहीं रहे हैं. जब 2013 में उनका दोबारा भाजपा अध्यक्ष बनना बिल्कुल पक्का था तो अचानक उनके स्वामित्व वाली पूर्ति समूह की कंपनियों पर आयकर विभाग के छापे पड़े और गडकरी दोबारा भाजपा अध्यक्ष नहीं बन सके. पूर्ति समूह के मामले अब भी पूरी तरह से बंद नहीं हुए हैं.
पार्टी के शीर्ष पर बैठे छह नेताओं में से नरेंद्र मोदी और अमित शाह को छोड़ दें तो बाकी चार ऐसे हैं जिनमें आपसी प्रतिस्पर्धा है. ऐसे में नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह और सुषमा स्वराज स्वाभाविक तौर पर चाहेंगे कि अगर वे सभी आरोपों में घिरकर या किसी और राजनीतिक वजहों से कमजोर हुए हैं तो फिर जेटली भला अपनी सियासी शक्ति लगातार क्यों बढ़ाते रहें. जब 2014 में अमृतसर से जेटली लोकसभा चुनाव हार गए थे तो उस वक्त पार्टी में उनके प्रतिस्पर्धियों को थोड़ी राहत जरूर मिली थी लेकिन बाद में मोदी सरकार में जिस मजबूती से वे उभरे उससे उनके प्रतिस्पर्धियों का चिंतित होना स्वाभाविक ही था.
नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर आर्थिक गड़बड़ियों के आरोप भले न हों लेकिन 2002 के गुजरात दंगों के कुछ छींटे तो दोनों पर हैं ही. भले अदालती कार्रवाई में दोनों के खिलाफ कुछ नहीं हुआ हो लेकिन जब-जब गुजरात दंगों की बात होती है नरेंद्र मोदी और अमित शाह का नाम उससे जुड़ ही जाता है.
ऐसे में भाजपा के अंदर के उन लोगों की बातों में दम लगता है जो कहते हैं कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के लिए बिल्कुल बेदाग और ताकतवर अरुण जेटली उतने काम के नहीं हैं जितने आरोपों से घिरे और कमजोर ऐसे अरुण जेटली, जो सरकार और पार्टी में रक्षात्मक मुद्रा अपनाकर अपना काम करते रहें.