November 20, 2024

‘लौंडा’ बनकर जब नाचता हूं तो छेड़ते है… लड़के

‘नकली ब्रेस्ट, लिपस्टिक पाउडर लगाकर पूरा लड़की का रूप धरते थे. लेकिन जब थोड़ी बुद्धि आई तो लगा कि हम क्या कर रहे हैं. और तय किया कि अब पैसा नहीं कमाएंगे, इज़्ज़त कमाएंगे. इज़्ज़त तो पहले भी थी, लेकिन वो ग़ुलाम इज़्ज़त थी.” 62 साल के बनारसी मांझी ‘आलम’ किसी मंझे हुए नेता की तरह सरपट बोले जा रहे थे. आपसी बातचीत में उनकी ज़ुबां पर अंबेडकर, एकलव्य, मदर टेरेसा की शिक्षाएं झट से विराजमान हो जाती हैं.

बनारसी मांझी अपने ज़माने के मशहूर ‘लौंडा’ थे, जिसे सत्तर के दशक में रसूख वाले अपने ‘दरवाज़े’ पर नचाने में गर्व महसूस करते थे. बिहार के ग्रामीण अंचलों में लौंडा नाच बहुत लोकप्रिय है. इसमें स्त्री की वेशभूषा में पुरुष नाचते हैं. ये कलाकार भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर को अपना आदर्श मानते हैं.

हालांकि, भिखारी ठाकुर के नाटकों के केन्द्र में सामाजिक समस्याएं थीं जबकि वर्तमान में लौंडा नाच अश्लील संवाद और इशारों के लिए ज़्यादा जाने जाना लगा है. बिहार के गया ज़िले के लई गांव के बनारसी ने 14 साल की उम्र से ही लौंडा नाच करना शुरू किया था. उनके पिता लौंडा पार्टी में सारंगी बजाते थे. पिता ने उन्हें बचपन से ही इसके लिए ट्रेनिंग दी.

बनारसी बताते हैं कि उनके लड़कियों जैसे लंबे बाल थे, गला सुरीला था, हाथ और कमर में लोच थी, औरतों जैसी चाल ढाल के चलते उनकी बहुत डिमांड थी. लेकिन 1978 में बोध गया भूमि आंदोलन ने उनका जीवन बदल दिया. मठ की ज़मीन को भूमिहीनों को बांटने को लेकर हुए इस आंदोलन के दौरान वह आंदोलनकारियों के संपर्क में आए. बनारसी जेल गए और धीरे-धीरे लौंडा नाच के प्रति उनके मन में दुराव पैदा हुआ.

बकौल बनारसी, “हमने सोचा कि लौंडा नाचता है तो लोग कहते थे सरस्वती (हिंदू देवी) की देन है. लेकिन हमने तो कभी सरस्वती को नाचते नहीं देखा. ये लोग सरस्वती के नाम पर निचली जातियों को नचाते हैं और मोटा पैसा कमाते हैं. जब ये बात मुझे समझ आ गई तो हमने अपनी टीम को भंग कर दिया. ज़मीन के आंदोलनकारी बने और पूरा देश घूमे.”

फिलहाल बनारसी कठपुतली का नाच दिखाकर और खेती करके अपना जीवनयापन कर रहे हैं. साथ ही वो अपने समाज की बेहतरी के लिए लगातार संघर्ष करते रहते हैं.

बेटी से सामने हुआ शर्मिंदा
बनारसी के गांव से तकरीबन 200 किलोमीटर दूर मछरियावां में 22 साल के ललित परेशान हैं. वो इस पेशे में हैं और आने वाले त्यौहारी मौसम में वो बहुत व्यस्त रहेंगे. ऐसे में उसकी बेचैनी बढ़ गई है. ललित बताते हैं कि वो फतुहा में कोचिंग लेकर वो बिहार पुलिस की तैयारी कर रहे हैं. जितने दिन बाहर रहेंगे, उतना पढ़ाई का नुकसान होगा.

ललित जब पहली बार स्टेज पर चढ़े तब वो आठवीं में पढ़ते थे. दसवीं कक्षा में उन्होंने अपनी पार्टी बना ली. वो ग्रैजुएशन करके बीते चार साल से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं. जब उन्होंने ये सब शुरू किया उस वक्त कोई समझ नहीं थी लेकिन आज उन्हें अफ़सोस होता है.

दो बच्चों के पिता ललित कहते हैं, “रात को जब लड़की बनता हूं तो सुबह किसी से आंख मिलाने में बहुत शर्म महसूस होती है. एक बार मेरी बच्ची ने मुझे लौंडा बने देख लिया और जब उसने घर में मुझे उलाहना दी तो लगा कि मैं उसी वक्त मर जाऊं.”

दर्शकों की प्रतिक्रिया
इन कलाकारों के जीवन की मुश्किलों से 17 साल के दीपक भी दो चार हैं. दीपक दास से मेरी मुलाक़ात पटना में आयोजित एक लौंडा नाच के दौरान हुई. नीले रंग का चटक लहंगा पहने दीपक स्टेज पर नाच रहे थे और सामने बैठे लोग उनके क़रीब जाने की लगातार कोशिश कर रहे थे.

आरा के एसकेएस कॉलेज के बाहरवीं के छात्र दीपक ने बताया, “कोई अच्छी लड़की सड़क पर चलती है तो लोग उसे छेड़ते हैं. हमें भी जब लोग लड़की बना देखते हैं तो बुरा बर्ताव करते हैं जबकि उन्हें मालूम है कि मैं लड़का हूं. मुझे बहुत नफ़रत होती है लेकिन पैसे के लिए ये करना पड़ेगा.”

साल 2013 में दीपक ने जब नाचना शुरू किया तो उनके गांव वालों को मालूम नहीं था. लेकिन जब बात खुली तो साथ पढ़ने वाले लड़कों, गांव वालों और परिवार में बहनों ने तंज कसना शुरू किया.

दीपक कहते हैं, “हम फैक्ट्री में काम करते तो हमें 12 घंटे काम करना पड़ता और यहां एक रात के 500 रुपये मिल जाते हैं. पढ़ाई पूरी करके कोई भी नौकरी कर लेंगे लेकिन अपनी शादी से पहले ये पेशा छोड़ देंगे. मेरी बीबी को भी तो ये अच्छा नहीं लगेगा.”