एक बार स्वामी विवेकानंद जी को एक धनी व्यक्ति ने सम्मान पूर्वक बुलाया। स्वामी जी उसके घर पहुंचे। तो धनी व्यक्ति बोला, ‘हिंदू मूर्ति पूजा करते हैं। मूर्ति पीतल, मिट्टी और पत्थर की होती है। लेकिन मैं यह सब नहीं मानता।’
विवेकानंद जी ने अचानक देखा कि उस धनी व्यक्ति के बैठने की जगह के ठीक पीछे तस्वीर लगी हुई थी। उन्होंने जिज्ञासावश पूछा, ‘यह तस्वीर किसकी है ?’ उसने कहा, ‘मेरे पिताजी की है।’ तब स्वामी जी ने कहा, ‘उस तस्वीर को हाथ में लीजिए।’
धनी व्यक्ति ने तस्वीर को जैसे ही हाथ में लिया, तब स्वामी जी ने कहा, ‘अब इस पर थूकिए।’ धनी व्यक्ति नाराज हो गया। उसने कहा, ‘मान्यवर आप क्या कह रहे हैं। मैं यह बिल्कुल नहीं कर सकता।’
तब स्वामी जी ने कहा, ‘ये तस्वीर कागज का टुकड़ा और कांच के फ्रेम में जड़ी है। यह निर्जीव है। आप इस तस्वीर का निरादर इसलिए नहीं करना चाहते क्योंकि ऐसे में आपके पिताजी का भी निरादर होगा।’
वैसे ही हम हिंदू उन पत्थरों, मिट्टी, धातु से बने भगवान की पूजा करते हैं। भगवान कण-कण में व्याप्त हैं। इसलिए हम सभी हिंदू मूर्ति पूजा करते हैं।