सामाजिक मुद्दों और कानून के बारीक पहलुओं पर जिस तरह की बेहतरीन फिल्में निर्माता-निर्देशक बलदेव राज चोपड़ा ने बनाईं, बॉलिवुड में वैसी मिसाल और कोई नहीं मिलती. आज से करीब 35 साल पहले बी आर चोपड़ा ने मुस्लिम समाज से जुड़े ऐसे विषय पर फिल्म ‘निकाह’ बनाई जिसे छूने की पहले शायद किसी ने हिम्मत नहीं दिखाई थी. ये विषय था ‘निकाह-ए-हलाला’.
आगे बढ़ने से पहले फिल्म ‘निकाह’ की कहानी संक्षेप में बता दी जाए
फिल्म निकाह के तीन अहम किरदार हैं- हैदर (राज बब्बर), निलोफर (सलमा आग़ा) और वसीम (दीपक पराशर). हैदर और निलोफर कॉलेज में साथ-साथ पढ़ते है. हैदर शायर है और दिल ही दिल में निलोफर को चाहता है. लेकिन उसे ये नहीं पता कि निलोफर को वसीम से मुहब्बत है. वसीम नवाब होने के साथ बिजनेसमैन है. वसीम और निलोफर की शादी हो जाती है. उधर हैदर एक मैग्जीन का सम्पादक बन जाता है.
वसीम अपने बिजनेस में काफी व्यस्त हो जाता है. शादी की पहली सालगिरह पर निलोफर एक पार्टी रखती है. सारे मेहमान आ जाते हैं लेकिन वसीम ही नहीं आ पाता है. मेहमानों के सवालों से तंग आकर निलोफर खुद को एक कमरे में बंद कर लेती है. मेहमान इसे अपनी तौहीन समझ कर वहां से चले जाते हैं. वसीम जब घर पहुंचता है तो घर खाली होता है. इस बात को लेकर निलोफर और वसीम में तकरार शुरू हो जाती है. तैश में आकर वसीम निलोफर को तीन बार तलाक कह देता है, जिसके बाद शरियत के अनुसार निलोफर का वसीम से तलाक हो जाता है.
बाद में वसीम को अपनी गलती का एहसास होता है. तलाकशुदा निलोफर को हैदर अपनी मैग्जीन में जॉब ऑफर करता है. इसी दौरान निलोफर को एहसास होता है कि हैदर अब भी उससे मुहब्बत करता है. उधर, वसीम चाहता है कि निलोफर दोबारा उसकी ज़िंदगी मे आ जाए, इसके लिए वो इमाम से सलाह लेने जाता है. इमाम वसीम को शरिया क़ानून की जटिलता के बारे में बताते हैं कि किस तरह एक महिला को तलाक देने के बाद उससे दोबारा निकाह करना मुश्किल हो जाता है. इसके लिए महिला को पहले किसी और शख्स से शादी करनी होगी, फिर वो शख्स उसे तलाक देगा, उसी के बाद महिला पहले पति से शादी करने की इजाज़त होगी. इसे ही निकाह-ए- हलाला कहते हैं.
इसी बीच हैदर निलोफर से शादी की ख्वाहिश जताता है. दोनों अपने अभिभावकों की रजामंदी मिलने के बाद निकाह कर लेते हैं. इसी दौरान निलोफर को वसीम चिट्ठी भेजता है, जिसमें दोबारा निकाह की इच्छा जताता है. हैदर ये चिट्ठी पढ़ लेता है और समझता है कि निलोफर और वसीम अब भी मुहब्बत करते हैं. हैदर फिर वसीम को बुलाता है और निलोफर के सामने तलाक देने की पेशकश करता है. हैदर की इस पेशकश को ठुकराते हुए निलोफर की ओर से हैदर और वसीम दोनों से सवाल किए जाते हैं. निलोफर कहती है कि दोनों ही ऐसे पेश आ रहे हैं कि जैसे कोई वो औरत नहीं बल्कि कोई प्रॉपर्टी है. निलोफर फिर अपना फैसला सुनाती है कि वो हैदर के साथ ही रहना चाहती है. वसीम फिर निलोफर की भावनाओं को सम्मान देते हुए दोनों की ज़िंदगी से दूर चला जाता है…
खैर ये तो रही फिल्म की बात. आइए अब जानते हैं कि निकाह-ए-हलाला की क्या है हकीकत और क्या है फसाना?
शरिया कानून के मुताबिक अगर पति की ओर से पत्नी के लिए ‘तलाक’ शब्द का इस्तेमाल किया जाता है, होशोहवास में या तैश के वश में आकर, तो वो ‘इद्दत’ की तीन महीने की मुद्दत में तलाक को रद्द कर सकता है. इद्दत की मुद्दत सिर्फ एक ही सूरत में बढ़ाई जा सकती है अगर महिला पत्नी गर्भवती हो. इद्दत की मुद्दत तब तक रहती है जब तक महिला बच्चे को जन्म नहीं दे देती.
तलाक-इद्दत का प्रावधान पति के लिए चेतावनी की तरह होता है कि वो पत्नी को स्थायी तौर पर तलाक ना दे. अगर पति की ओर से पत्नी की ओर मुखातिब होते हुए तीन बार तलाक लगातार कहा जाता है तो वो तलाक पूरा माना जाता है. फिर ऐसा जोड़ा ना तो इद्दत की मुद्दत से दोबारा शादी कर सकता है और ना ही अपनी दोनों की रज़ामंदी से.
अगर फिर वो दोनों दोबारा साथ रहना चाहते हैं तो निकाह-ए-हलाला पर अमल जरूरी होता है. इसके तहत महिला को किसी दूसरे शख्स से शादी कर उससे तलाक लेना होता है. निकाह-ए-हलाला का प्रावधान शरिया कानून में इसीलिए किया गया है कि कोई पति तलाक को हल्के में ना ले और कोई पत्नी ऐसी स्थिति ना आने दे जिससे कि तलाक की नौबत आए.
हालांकि निकाह-ए-हलाला को लेकर कई तरह की भ्रांतियां भी हैं
कई लोग समझते हैं कि निकाह-ए-हलाला तीन लोगों के बीच का अरेंजमेंट (जोड़ा और अन्य शख्स) है, जिसके जरिए पत्नी कानूनी तौर पर अपने पति से दोबारा शादी कर सकती है. ये सबसे बड़ी भ्रांति है. इस्लाम हलाला को अरेंजमेंट प्रेक्टिस के तौर पर नहीं देखता. किसी महिला के पहले पति के लिए उससे दोबारा शादी करने की सख्त शर्त होती है कि या तो उसका दूसरा पति अपनी मर्जी से तलाक दे या दूसरे पति की मौत हो जाए. सिर्फ यही सूरत है कि एक महिला अपने पहले पति से दोबारा शादी कर सकती है. इस मामले में किसी भी तरह के अरेंजमेंट को इजाज़त नहीं दी जा सकती.
दूसरा बड़ा मिथक भी पहले से ही जुड़ा है. कई मर्द समझते हैं कि वो अपनी पत्नी के खिलाफ तलाक शब्द का इस्तेमाल अपने हिसाब से जब चाहे, जैसे चाहे कर सकते हैं. ऐसा करते हुए उन्हें कोई परिणाम भुगतने नहीं पड़ेंगे. यहां इस्लामी प्रावधान साफ है. इसके मुताबिक अरेंज्ड हलाला बड़ा पाप है. जायज़ हलाला वही माना जाएगा कि जब महिला और उसके दूसरे पति के बीच शारीरिक संबंध स्थापित हुए हों. अगर महिला का पहला पति उसे दोबारा अपनी पत्नी के तौर पर स्वीकार करता है तो ये हमेशा उसके लिए भावनात्मक आघात रहेगा. ये उसे एहसास कराएगा कि क्यों उसने तलाक को हल्के में लिया था और गुस्से या तैश में आकर तीन बार उसे बोला था.