New Delhi/Alive News : असर (अनुअल स्टेट्स ऑफ एजुकेशन) के ताजारतीन सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक स्कूल में पढ़ने वाले करीब एक चौथाई बच्चे अपनी भाषा को भी ठीक से नहीं पढ़ सकते हैं। इसके आंकड़े बेहद चौंकाने वाले हैं। रिपोर्ट बताती है कि पचास फीसद से ज्यादा बच्चे साधारण गुणा भाग भी ठीक से नहीं जानते। असर-17 की यह रिपोर्ट देश के राज्यों के 28 जिलों पर आधारित है जिसे गांवों के हजार घरों में जाकर किया गया है। ग्रामीण शिक्षा की इस तस्वीर में यह भी निकलकर आया कि फीसद बच्चों को अपने राज्य के बारे में कुछ नहीं पता है। मुख्य आर्थिक सलाहकार, अरविंद सुब्रमण्यम का कहना है कि इससे जाहिर होता है कि वाकई ग्रामीण शिक्षा की क्या स्थिति है और हमें इस ओर क्या करने की जरूरत है।
स्थिति जस की तस:
सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब इतने बड़े पैमाने पर देशभर में स्कूल खुल रहे हैं तो आखिर कमी कहां है। दिल्ली छोड़ कर देहरादून के करीब एक ग्रामीण क्षेत्र में जब मैंने स्थाई रूप से रहने का निर्णय किया तब मेरे मन में कहीं ये विचार था कि स्थानीय बच्चों के साथ उनके समझने बूझने के तरीकों पर कुछ काम करूंगा। मकसद सिर्फ ये था कि बच्चों को इस तरह से समझदार और खुले दिमाग का बनाया जा सके कि वे अच्छे बुरे के बारे में खुद से निर्णय ले सकें। पहली खेप में आए बच्चे एक स्थानीय स्तर के सबसे बेहतर अंग्रेजी माध्यम, प्राइवेट स्कूल के थे।
मैं इस उम्मीद में था कि अपनी कक्षा के मुताबिक जो मूलभूत चीजें उन्हें आती हैं, उनको और उनके आस पास की चीजों को और वास्तविक रूप से समझाने की कोशिश की जाएगी। बच्चों से संपर्क बढ़ने के साथ ही साथ हैरानी भी बढ़ती गई। संकल्पना के स्तर पर तो ये बच्चे लगभग शून्य थे। वे जो पढ़ रहे थे उसको समझाने की जरूरत न तो शायद शिक्षकों को महसूस हुई थी और न ही बच्चों में उसे समझने का भाव पैदा किया गया। उनमें जो अच्छे नंबर लाने वाले थे उनकी कुशलता ये थी कि प्रश्नों के उत्तर को परिश्रमपूर्वक याद कर लेते थे, एक लय में।
अंग्रेजी के उन उत्तरों का जब मैंने कई बार अर्थ जानने की कोशिश की तो बच्चे ‘ना’ की मुद्रा बना लेते थे। आश्चर्य ये था कि उन्हें इस बात का अफसोस भी नहीं था वे जो पढ़ रहे हैं उसे वे समझते तक नहीं। वे इतना जानते थे इसे लिख देने पर उनके नंबर अच्छे आ जाएंगे। जो बेचारे याद भी नहीं कर पाते थे वे नई शिक्षा नीति के भरोसे पास हो रहे थे।
जब इन बच्चों के मां-बाप से कभी इस विषय पर बात होती तो उनमें से अधिकांश ने तो कभी इस तरफ गौर करने की जरूरत ही नहीं समझी थी। जो थोड़े जागरूक थे, उन्हें इससे ही संतोष था उन्होंने अपनी सामथ्र्य के अनुसार या उससे बढ़कर फीस वाले स्कूल में बच्चों का दाखिला कराया था। ज्यादा फीस देकर ही वे बच्चे की सारी जिम्मेदारियों से मुक्त महसूस कर रहे थे। बाकी कसर ट्यूशन की फीस से पूरी हो रही थी। इतना कुछ कर देने के बाद उन्हें इत्मीनान था, बच्चा बेहतरीन शिक्षा हासिल कर रहा है।