छठ का व्रत संतान की प्राप्ति और लंबी आयु की कामना के लिए किया जाता है। इस व्रत को स्त्री-पुरुष दोनों ही कर सकते हैं। कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि पर नहाय-खाय से छठ पर्व का आरंभ हो जाता है और षष्ठी तिथि को मुख्य छठ व्रत करने के बाद अगले दिन सप्तमी को उगते सूरज को अर्घ्य देने के बाद व्रत का समापन किया जाता है।
इस बार 8 नवंबर को नहाय-खाय से छठ व्रत का आरंभ होगा। अगले दिन 9 नवंबर को खरना किया जाएगा और 10 नवंबर षष्ठी तिथि को मुख्य छठ पूजन किया जाएगा। अगले दिन 11 नवंबर सप्तमी तिथि को उगते सूर्य को अर्घ्य देने के बाद छठ पर्व के व्रत का पारणा किया जाएगा। इस व्रत में मुख्य रूप से सूर्य की उपासना की जाती है। साथ ही उगते और अस्त होते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।
धार्मिक मान्यता के अनुसार छठ मईया को ब्रह्मा का मानस पुत्री कहा जाता है और कहा जाता है कि ये वही देवी हैं जिनकी पूजा नवरात्रि में षष्ठी तिथि को की जाती है। इनकी पूजा करने से संतान प्राप्ति व संतान को लंबी उम्र प्राप्त होती है। एक अन्य मान्यता के अनुसार इन्हें सूर्य देव की बहन भी माना जाता है।
नहाय-खाय का महत्व
छठ पर्व में साफ-सफाई का विशेष महत्व होता है। कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को छठ पर्व का प्रथम दिन होता है। इस दिन व्रती सुबह जल्दी उठकर साफ-सफाई करते हैं और स्नानादि करने के पश्चात छठ पर्व का आरंभ करते है।
खरना
कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को छठ व्रत का दूसरा दिन होता है। इस दिन को खरना या लोहंडा भी कहा जाता है। इस दिन मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ी से आग जलाकर साठी के चावल, दूध और गुड़ की खीर बनाई जाती है। संध्या के समय नदी या सरोवर पर जाकर सूर्य को जल दिया जाता है और इसके बाद छठ का कठिन व्रत आरंभ हो जाता है।
षष्ठी तिथि को मुख्य छठ व्रत
षष्ठी को छठ पर्व का मुख्य पूजन किया जाता है। इस दिन सुबह सूर्योदय के समय नदी सरोवर पर जाकर अर्घ्य दिया जाता है और छठी मईया का पूजन किया जाता है। व्रती पूरे दिन कठिन निर्जला उपवास करते हैं। उसके बाद शाम के समय नदी पर जाकर व्रती पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते है। इसके अगले दिन सप्तमी को व्रती सुबह उगते सूर्य को अर्घ्य देते है और छठ पर्व का समापन किया जाता है।
सूर्य को अर्घ्य देने के पीछे ये है पौराणिक कथा
पौराणिक कथा के मुताबिक छठ पर्व का आरंभ महाभारत काल के समय में माना जाता था। कर्ण जन्म सूर्यनारायण के द्वारा दिए गए वरदान के कारण कुंती के गर्भ से हुआ था। इसलिए ये सूर्य पुत्र कहलाते हैं और सूर्यनारायण की कृपा से करण को सूर्य भगवान के कवच व कुंडल प्राप्त हुए थे व सूर्य देव के तेज और कृपा से ही ये तेजवान व महान योद्धा बने। कहा जाता है कि इस पर्व की शुरुआत सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण के द्वारा सूर्य की पूजा करके की थी। कर्ण प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े रहकर सूर्य पूजा करते थे एवं उनको अर्घ्य देते थे। इसलिए आज भी छठ में सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा चली आ रही है। इस संबंध में एक कथा और मिलती है कि जब पांडव अपना सारा राज-पाठ कौरवों से जुए में हार गए, तब दौपदी ने छठ व्रत किया था। इस व्रत से पांडवों को उनका पूरा राजपाठ वापस मिल गया था।