ट्रेन. हर ख़ास-ओ-आम हिंदुस्तानी का वास्ता पड़ने वाली चीज़. भारत में रह कर रेलवे के सफ़र से बचा रह सके, ऐसा शख्स मिलना दुर्लभ है. अक्सर हवा में उड़ने वाले अमीर लोग भी कभी न कभी रेलवे की शरण में जाते ही हैं. भारतीय रेलवे इस देश के यातायात की रीढ़ की हड्डी है. जितनी ये अहम है, उतनी ही अस्त-व्यस्त. पिछले दिनों ख़बर आई कि ट्रेन और स्टेशन पर मिलने वाला खाना खाने लायक नहीं है. इसको खाने से बीमार पड़ने की संभावना है. नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक माने CAG ने संसद में पेश की गई अपनी रिपोर्ट में बताया था ये सब.
अब यही CAG एक और राज़ फाश कर रहा है. ट्रेन में इस्तेमाल होने वाले कंबल और चादरें धुलवाने में रेलवे भयंकर लापरवाही से काम ले रहा है. संसद में पेश की गई अपनी रिपोर्ट में CAG ने साफ़ लफ़्ज़ों में कहा है कि रेलवे इन चीज़ों की धुलाई के लिए निर्धारित शेड्यूल बिल्कुल भी नहीं फॉलो कर रही है. इतना बुरा हाल है कि कई जगह 3 सालों से ब्लैंकेट धुले ही नहीं हैं. चादरों और तकिये के कवर्स के साथ भी यही माजरा है.
क्या कहती है CAG की तहकीकात ?
CAG ने 2012-13 और 2015-16 के पीरियड का 33 डिपो से डेटा कलेक्ट किया. इस पड़ताल से सामने आया कि रेलवे विभाग लिनेन की साफ़-सफाई के मामले में पूरी तरह उदासीन है. 9 अलग-अलग ज़ोन के अंदर पड़ने वाले 13 डिपो में, 3 साल से कोई कंबल नहीं धुला है. सोचकर ही उबकाई आती है. जिस कंबल को रोज़ कोई इस्तेमाल करता है, उसे 3 साल तक पानी का स्पर्श नहीं हुआ. बीमारियों को इससे मुखर न्यौता और क्या होगा? ऑडिट में ये भी पता चला कि 33 में से सिर्फ 7 डिपो छोड़ दिए जाएं, तो चादरें भी बिना धुली पाई गईं.
2015-16 में 12 डिपो के हुए ऑडिट से पता चला कि यहां कंबल धोने के बीच का वक्फा 6 महीने से लेकर 26 महीनों तक का था. ये डिपो कोई छोटे-मोटे शहर के नहीं, बल्कि मुंबई, कोलकाता, ग्वालियर, गुवाहाटी, लखनऊ, सिकंदराबाद और डिब्रूगढ़ जैसी जगहों के थे.
और भी हैं गड़बड़ियां
चेन्नई के बेसिन ब्रिज डिपो में देखा गया कि तकियों के कवर, इस्तेमाल की हुई चादरों को फाड़ कर बनाए जा रहे थे. उत्तर रेलवे के कुछ डिपो में इस्तेमाल हुए तकियों के अस्तर पैसेंजर्स को पकडाए गए. कई जगह पर धुली हुई चादरें, तकिए वगैरह अस्तव्यस्त ढंग से फेंके पाए गए. उन्हीं के बीच वो कंबल वगैरह भी थे, जो बहुत पुराने होने की वजह से जिनको नष्ट किया जाना था.
क्या हैं नियम?
गाइड लाइन के अनुसार चादरें, तकियों के कवर्स, तौलिए आदि एक बार इस्तेमाल होते ही तुरंत धोने के लिए दिए जाने चाहिए. कंबल हर 2 महीने बाद धुलने चाहिए. लेकिन इसका पालन बिल्कुल भी नहीं हो रहा है.
CAG ने राय दी है कि तत्काल प्रभाव से एक ऐसी प्रणाली बनाई जाए, जिससे साफ़-सफाई निर्धारित समय से हो सके.
अनुभव क्या कहता है!
साफ़-सफाई को लेकर रेलवे की ये गड़बड़ियां अब सामने आ रही हैं, लेकिन इन्हें लेकर आम आदमी के मन में शक़ हमेशा रहा है. अगर अपना अनुभव बताऊं, तो बिछाने वाली चादरों से समझौता तो कई बार किया मैंने, लेकिन कंबल पर भरोसा करने का हौसला कभी न हुआ. कड़ाके की ठण्ड में अगर उसे ओढ़ना भी पड़ा, तो उसके और अपने बीच कोई घर से साथ लाई चादर का कवच ज़रूर लगाया है. उस कंबल की स्मेल बर्दाश्त करना जिगरे का काम है.