पशुओं के प्रति इंसानी क्रूरता के मामले तो आए दिन सामने आते रहते हैं लेकिन इस कड़ी में उत्तराखंड पुलिस के घोड़े शक्तिमान के साथ हुआ बर्बर सलूक अत्यंत शोचनीय है। ऐसा इसलिए कि एक भाजपा विधायक की कथित क्रूरता के कारण उस बेशकीमती घोड़े की एक टांग काटनी पड़ी है। अब वह जीवन भर अपनी विकलांगता के कारण वे तमाम काम नहीं कर पाएगा जिनके लिए उसे पुलिस में रखा गया था। यह भी एक तरह का पशु-वध ही है जिसके लिए विधायक को चौदह दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया है। अब इस मामले की न्यायिक परिणति जो भी हो, लेकिन इस पर राजनीति खूब हो रही है। भाजपा नेता इसे उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार की उनकी पार्टी को बदनाम करने की चाल बता कर अपने विधायक का बचाव कर रहे हैं। क्या किसी आपराधिक करतूत या बर्बर व्यवहार के बचाव में राजनीतिको ढाल की तरह इस्तेमाल किया जाना उचित ठहराया जा सकता है? इसी का दूसरा पहलू है कि क्या सत्ता का दुरुपयोग कर महज सियासी स्वार्थों के लिए बिना स्पष्ट सबूतों के एक जनप्रतिनिधि को उसे मुजरिम करार दे देना चाहिए? बेशक, लोकतांत्रिक आदर्शों का तकाजा है कि ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन विडंबना देखिए कि एक घोड़े की घायल टांग पर राजनीति की घुड़दौड़ जारी है और आरोप-प्रत्यारोपों की इलाकाई सियासत कुलांचें मार रही है। आरोपी भाजपा विधायक का कहना है कि उनकी पार्टी के प्रदर्शनकारियों को पुलिस ने घुड़सवार दस्ते के जरिए खदेड़ना शुरू किया तो उन्होंने केवल घोड़े को डराने के लिए डंडा फटकारा था, लेकिन घोड़ा वहां लगे लोहे के बैरीकेड के पास गिरा और उसकी पिछली टांग टूट गई। मुख्यमंत्री हरीश रावत ने इसे ‘ड्यूटी के वक्त सिपाही का घायल होना’ बताते हुए दोषियों के खिलाफ उचित कार्रवाई का एलान किया है। बहरहाल, यह गहन पड़ताल के बाद ही पता चलेगा कि घोड़ा भीड़ की भगदड़ और शोरशराबे से बिदक कर जमीन पर गिरने से घायल हुआ या विधायक ने इतना मारा कि उसकी टांग टूट गई। मगर सवाल यह भी है कि अपेक्षया छोटे और सीमित स्थान में क्या भीड़ को घोड़े दौड़ा कर काबू या तितर-बितर किया जाना उचित है? एक लोकतांत्रिक देश में प्रदर्शनकारियों पर काबू पाने के लिए उनकी तादाद के मुताबिक तरीके अपनाए जाते हैं। किसी छोटे और अहिंसक प्रदर्शन के दौरान पहले चेतावनी देकर, फिर पानी की बौछार या लाठीचार्ज करके लोगों को खदेड़ा जाता है। घुड़सवार पुलिस की तैनाती आमतौर पर बड़े इलाके या मैदान में आयोजित प्रदर्शनों के दौरान की जाती है ताकि पुलिसकर्मी जल्द से जल्द उपद्रवियों तक पहुंच सकें। लेकिन अफसोस की बात है कि हमारा पुलिसिया तंत्र अब भी उपनिवेशकालीन मानसिकता में जकड़ा है और उसे इंसानी भीड़ को घोड़ों की टापों से रौंदने में अक्सर कोई संकोच नहीं होता। यही असंवेदनशील मानसिकता उत्तराखंड के शक्तिमान प्रकरण में दोनों पक्षों के बीच नजर आती है। एक पक्ष जहांं विरोध के अतिरेक में बेजुबान पशु से बेरहम सलूक करता है तो दूसरा सत्ता के मद में उस विरोध को कुचलने के लिए पशु-शक्ति का सहारा लेने पर उतारू हो जाता है। पशु-प्रेम तो पशुओं के प्रति क्रूरता निवारण और उनसे संवेदनशील बर्ताव का हिमायती होने के साथ ही उनके अमानवीय इस्तेमाल के भी खिलाफ होना चाहिए। शक्तिमान के दिव्यांग होने का यह सबक हम सीख लें तो उसके प्रति हमारी बर्बरता का कुछ प्रतिकार हो सकेगा।