November 21, 2024

गुरु से शिक्षक, शिक्षक से अध्यापक और अंततः टी-चर

प्रारम्भ से ही मैं हमेशा शिक्षकों के हितों का हिमायती रहा हूँ और आज भी हूँ,आगे भी रहूँगा लेकिन वर्तमान दौर के हालात को देखकर मेरा नजरिया बदला है क्योंकि अब वक्त के बदलते माहौल में गुरु,गुरु नहीं रहे बल्कि टीचर हो गए हैं और इससे भी आगे टी-चर हो गए हैं।कुछ मजबूरियाँ तो गुरु जी की भी रही हैं टीचर बनने तक और इस टीचर को टी-चर बनाने का काम व्यवस्था ने किया है।इतना होने के बाद भी मेरा मानना है कि वर्तमान दौर में जो कुछ हम अच्छा देख रहे हैं,उसका श्रेय इसी टीचर को जाता है पर टी-चर को नहीं।बेशक हालात विपरीत हैं लेकिन टीचर तो वही होता है जो विपरीत हालात में भी काम करके दिखाए और उन विपरीत हालातों को अनुकूलता में ढाले।ये माना कि हालात ने गालिब निकम्मा कर दिया पर जो टीचर होता है,वह बहुत बड़ी ताकत होता है तभी तो उसे अनगिनत संज्ञाओं से नवाज़ा गया है।

सम्भवतः पूरी धरती पर ऐसा कोई दूसरा पद नहीं होगा,जिसे इतनी संज्ञाएँ दी गई हों और इसी का असर है कि आज के अविश्वसनीय दौर में अब भी टीचर पर लोग विश्वास करते हैं।यह एक अलग बात है कि इस विश्वास में गिरावट जरूर आई है,जिसके बारे में टीचर को आत्ममूल्यांकन करना चाहिए।वैसे तो टीचर को हर तरह से,हर दृष्टिकोण से आत्मनिरीक्षण करना चाहिए क्योंकि गुरु से शिक्षक,शिक्षक से अध्यापक,अध्यापक से टीचर और टीचर से टी-चर बनने का सफर क्योंकर और कैसे हुआ?बेशक गुरुकुल पद्दति नहीं रही पर छात्र तो समक्ष है ही।मुझे लगता है कि इससे पहले कि यह समझा जाए कि व्यवस्था में इतनी खामी है,शिक्षा नीति बदल गई,नियम बदल गए,आज का छात्र नए मोबाइली दौर का छात्र है,ऐसे-वैसे कार्यों का अवांछित बोझ है,तो टीचर को टी-चर बनना ही था।सम्भवतः यह खुद को बचाने का तर्क है,कुतर्क की भांति।ये वाजिब सवाल है कि पस्थितियाँ विपरीत हैं लेकिन है अँधेरी रात पर दिया जलाना कब मना है?अतः टीचर को आत्मविश्लेषण करना चाहिए कि वर्तमान दौर में ऐसा क्यों हुआ?और यकीन मानिए यदि टीचर ऐसा करता है तो निश्चित रूप से एक सकारात्मक सामाजिक क्रांति होगी क्योंकि क्रांति की धार यही आकर तेज होती है।

बेशक टीचर कुछ कहें मगर आज का टीचर वैचारिक संकीर्णता में फंसा हुआ है।धर्म-जाति और क्षेत्र के नाम पर उसकी बौद्धिक क्षमता निरंतर कुंठित होती जा रही है।यहाँ तक कि कई बार तो विद्या मंदिरों को ताकत का अखाड़ा बनते देखा गया है और यह विचार निरंतर फलीभूत हो रहा है।यहाँ तक कि विद्यालयों में गुट बने हुए हैं।कई तो ऐसे रहते हैं जैसे विधिवत रूप से अलग हुए हों।कइयों की तो खूब चलती है।कई अपने-अपने व्यवस्याओं में इतना उतर गए हैं कि वे अपना मूल कार्य ही भूल गए हैं।बहुतों को खुद पुस्तक पढ़े कई-कई वर्ष बीत चुके हैं।बहुतेरे कार्यालयों में कब्जा जमाए बैठे हैं।कई अलग-अलग कामों में ही खुद को उलझाए हुए हैं।स्थानीय स्तर पर कार्यरत टीचर घरेलू कार्य उसी समय निपटाते हैं।इसमें महिला और पुरूष टीचर दोनों शामिल हैं।यकीन मानिए मुझे तो बहुत दिन हो गए कि कभी स्कूलों में इस बात पर चर्चा सुने कि आखिर शैक्षिक स्तर कैसे सुधारा जाए?कई जगह बाड़ ही खेत को चर रही हैं तो कई जगह रखवाला ही गड़बड़ करता है।कई जगह तो शिक्षा ही व्यवसाय है।निजी स्कूलों में तो यह होता ही था पर पब्लिक स्कूलों में भी पनपने लगा है।

सम्भवतः टीचर इसलिए टी-चर बना क्योंकि वह अपनी शैक्षिक संस्कृति ही भूल गया।गुरु-मर्यादा से इतर होने लगा।वह भूल गया कि वह वैतनिक बेशक है परंतु उसका दर्जा कहीं ऊंचा है?सम्भवतः टीचर भूल गया कि देश व समाज का निर्माण उसी के कंधे पर है।मैं नहीं कहता कि टीचर की समस्याएँ जायज नहीं है।निश्चित रुप से टीचर की जो समस्याएँ हैं,वो जायज हैं।चाहे वो तबादलों की हों,वेतन संबंधी हों, गैर-शैक्षिणक कार्यों की हों,ढांचागत सुविधाओं की हों, पेंशन की हों, व्यवस्था द्वारा बनाई गई तमाम शैक्षिक नीति-निर्माण में शिक्षक को शामिल न करने की बात हो,शिक्षा नीतियों से संबंधित हो या फिर कोई ओर,वे सब अपनी जगह जायज है और निःसन्देह व्यवस्था को चाहिए कि केवल अपनी ना हाँककर उनका समाधान करें परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि मैं टीचर से टी-चर बन जाऊँ। अतः जड़ों की तरफ लौटिए और एक बार मन से प्रयास कीजिए कि हमें पुनः टी-चर से टीचर बनते हुए अध्यापक होते हुए गुरु बनने की ओर पुनः अग्रसर होना होगा और असंभव नहीं है क्योंकि–मुश्किल नहीं कुछ भी गर ठान लीजिए। याद रखिए शिक्षक दिवस मात्र भाषण देने, पुरस्कार बाँटने, गिफ्ट देने तक सीमित ना रखें बल्कि खुद टीचर अपने भीतर निष्पक्षता से झाँके और व्यवस्था इस बात पर विचार करे कि आखिर वह ऐसा क्यों कर रही है। बहरहाल शिक्षक दिवस पर गुरुओं को नमन करते हुए ढ़ेरों शुभकामनाएं।

(कृष्ण कुमार निर्माण, स्वतंत्र लेखक)