November 18, 2024

बस खिलाओ एक पान और लड़की भगाकर ले जाओ

Indore / Jhabua/Alive News : मप्र के फेमस भगोरिया मेले की शुरुआत वैसे तो 6 मार्च से होगी। लेकिन धार के गंगा महादेव में शिवरात्रि से ही प्रेम का यह पर्व शुरू हो गया है। भील और भिलाला आदिवासियों के प्रेम और शादी से जुड़े इस पारंपरिक मेले में युवक-युवती अपना जीवनसाथी चुनते हैं। पान खिलाकर चुनते हैं जीवनसाथी…

– आमतौर पर झाबुआ, धार, बडवानी और आलीराजपुर में होली के एक सप्ताह पहले भगोरिया पर्व शुरू होता है, लेकिन धार के गंगा महादेव में यह पर्व महाशिवरात्रि से शुरू हो जाता है।
– गंगा महादेव के पुजारी हेमगिरी गोस्वामी बताते हैं, यहां से मांदल दल शिवरात्रि को मांदल की थाप देते हैं। इससे यहां भगोरिया शुरू हो जाता हैं।
– रेमसिंह भूरिया बताते हैं शिवरात्रि से 15 दिन तक लोग खेतों में मजदूरी के लिए भी नहीं जाते।
– भगोरिया मेला किस दिन और कहां लगेगा, यह हाट बाजार से तय होता है। अमूमन हर मेले में औसतन 20 हजार लोग जुटते हैं।
– होली से पहले शुरू होकर मेला होली के दिन समाप्त हो जाता है। आदिवासी साल भर इसका इंतज़ार करते हैं।

कैसे करते हैं प्रेम का इजहार ?
– ढोल-मांदल की थाप पर सज-धजकर युवा मेले में आते हैं। आदिवासी युवतियां भी रंग-बिरंगे कपड़ों में सजकर पहुंचती हैं।
– लड़के मनपसंद हमसफर तलाशते हैं। तलाश पूरी होने पर वे लड़की को पान खिलाते हैं।
– फेस्टिवल के दौरान लड़के जिस लड़की को चाहते हैं उसके फेस पर रेड पाउडर लगाते हैं और अगर लड़की को यह रिश्ता मंजूर है तो वह लड़के को भी वही पाउडर लगाती है। इसके बाद वे दोनों भाग जाते हैं।
– लेकिन अगर पहले चांस में अगर लड़की राजी न हुई तो लड़के को उसे मनाने के लिए और कोशिश करनी होती है।
– भागने की वजह से ही इसे ‘भगोरिया पर्व’ कहा जाता है। इसके कुछ दिनों बाद आदिवासी समाज उन्हें पति-पत्नी का दर्जा दे देता है।

कैसे शुरू हुआ भगोरिया
– ऐसी मान्यता है कि भगोरिया की शुरुआत राजा भोज के समय से हुई थी। उस समय दो भील राजाओं कासूमार औऱ बालून ने अपनी राजधानी भगोर में मेले का आयोजन करना शुरू किया।
– धीरे-धीरे आस-पास के भील राजाओं ने भी इन्हीं का अनुसरण करना शुरू किया, जिससे हाट और मेलों को भगोरिया कहने का चलन बन गया। हालांकि, इस बारे में लोग एकमत नहीं हैं।
– उधर, भील जनजाति में दहेज का रिवाज़ उल्टा है। यहां लड़की की जगह लड़का दहेज देता है। इस दहेज से बचने के लिए ही भगोरिया परंपरा का जन्म हुआ था।

मेले में और क्या ?
– युवकों की अलग-अलग टोलियां सुबह से ही बांसुरी-ढोल-मांदल बजाते मेले में घूमते हैं।
– वहीं, आदिवासी लड़कियां हाथों में टैटू गुदवाती हैं। आदिवासी नशे के लिए ताड़ी पीते हैं।
– हालांकि, वक्त के साथ मेले का रंग-ढंग बदल गया है। अब आदिवासी लड़के ट्रेडिशनल कपड़ों की बजाय मॉडर्न कपड़ों में ज्यादा नजर आते हैं।
– मेले में गुजरात और राजस्थान के ग्रामीण भी पहुंचते हैं। हफ्तेभर काफी भीड़ रहती है।

इस बार का शेड्यूल
– इस बार सात दिनों तक झाबुआ जिले में 36 तो आलीराजपुर जिले में 24 स्थानों पर मेले लगेंगे।
6 मार्च – पेटलावद, रंभापुर, मोहनकोट, कुंदनपुर, रजला, बेड़ावा (झाबुआ)। आलीराजपुर के चंद्रशेखर आजादनगर, बड़ागुड़ा में
7 मार्च – पिटोल, खरड़ू बड़ी, थांदला, तारखेड़ी व बरवेट (झाबुआ)। बखतगढ़, आंबुआ, अंधारवड़ (आलीराजपुर)।
8 मार्च – उमरकोट, माछलिया, करवड़, बोड़ायता, कल्याणपुरा, मदरानी, ढेकल व चांदपुर, बरझर, बोरी, खट्टाली (आलीराजपुर)।
9 मार्च – पारा, हरिनगर, सारंगी, समोई, चैनपुरा (झाबुआ)। फूलमाल, सोंडवा, जोबट (आलीराजपुर)।
10 मार्च – भगोर, बेकल्दा, मांडली, कालीदेवी (झाबुआ)। कट्ठीवाड़ा, वालपुर, उदयगढ़ (आलीराजपुर)।
11 मार्च – मेघनगर, राणापुर, बामनिया, झकनावदा, बलेड़ी (झाबुआ)। नानपुर, उमराली (आलीराजपुर)।
12 मार्च – झाबुआ, ढोलियावाड़, रायपुरिया, काकनवानी व छकतला, सोरवा, आमखूंट, झीरण, कनवाड़ा, कुलवट (आलीराजपुर)।